________________ विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधी मान्यताएं : 143 नुयोगद्वार का विचार किया गया है। उसमें स्पष्ट रूप से उतराध्ययनसूत्र के समान ही स्त्री, पुरुष और नपुसक तोनों को हो मुक्ति का उल्लेख है।' मात्र यही नहीं अनन्तर और परम्पर दोनों ही दृष्टि से तोनों लिंगों की मुक्ति मानी गई है। साथ ही उसमें द्रव्यलिंग की दृष्टि से विचार करते हए स्पष्ट कहा है कि प्रत्युत्पन्न भाव की अपेक्षा से तो अलिंग हो 'सिद्ध होते हैं किन्तु पूर्वभाव को अपेक्षा से भावलिंग में स्वलिंग हो सिद्ध होते हैं लेकिन द्रव्यलिंग को अपेक्षा से स्वलिंग, अन्यलिंग ओर गृहलिंग तीनों ही सिद्ध होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र को टोकाओं को देखें तो सर्वप्रथम दिगम्बर परंपरा मान्य सर्वार्थसिद्धि (६ठों शताब्दो) में यह कहा गया है कि वेद को दृष्टि से तोनों वेदों से भाव की अपेक्षा से सिद्धि होती है, द्रव्य से नहीं। द्रव्य से पुलिङ्ग अथवा निग्रंथलिंग ही सिद्ध होते हैं तथा भूतपूर्व नय की अपेक्षा से सग्रंथ लिंग भी सिद्ध हो सकते हैं / इस प्रकार हम देखते हैं कि सर्वप्रथम सर्वार्थसिद्धि में इस बात का प्रतिपादन किया गया है कि पुरुषलिंग से ही मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इसके पश्चात् आचार्य अकलंक (८वीं शताब्दो) भो अपने ग्रंथ राजवार्तिक में सर्वार्थसिद्धि के उल्लेख का ही समर्थन करके रह जाते हैं। उससे अधिक वे भो कुछ नहीं कहते हैं / तत्पश्चात् १०वों शताब्दी के आचार्य प्रभाचंद्र ने अपने ग्रंथ न्यायकुमुदचंद्र में स्त्रोमुक्ति का निषेध किया है। श्वेताम्बर परंपरा के आवश्यक मूल भाष्य, विशेषावश्यकभाष्य ओर आवश्यकचूर्णि में हमें अचेलकत्व और सचेलकत्व के प्रश्न को लेकर पक्ष और प्रतिपक्ष के विविध तर्कों का उल्लेख मिलता है। सातवीं शताब्दी के अन्तं तक भी हमें एक भी ऐसा संकेत नहीं मिलता है जिसमें श्वेताम्बर आचार्यों ने स्त्रीमुक्ति का तार्किक समर्थन किया हो, इससे ऐसा लगता है 'कि प्राचीनकाल में स्त्रोमुक्ति के संदर्भ में कोई विवाद नहीं था। स्त्रोमुक्ति का निषेध सर्वप्रथम आचार्य कुंदकुंद ने ही किया और फिर उन्हीं का अनुसरण पूज्यपाद और अकलंक ने भी किया। अकलंक के काल तक भो 1. तत्त्वार्थभाष्य, 107 2. सर्वार्थसिद्धि, 109 3. राजवार्तिक, 109 4. नास्त्रि स्त्रीणां निर्वाण-न्यायकुमुदचन्द्र , भाग 2, पृ० 866......