SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विभिन्न सम्प्रदायों को दर्शन संबंधो मान्यताएँ : 137 महाशुक्र, (11) शतार, (12) सहस्रार (13) आणत, (14) प्राणत, (15) आरण और (16) अच्यूत / यहाँ हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा के ग्रंथों में उल्लिखित 16 वैमानिक देवों में से 12 वैमानिक देव तो वे ही हैं, जो श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रंथों में उल्लिखित हैं। श्वेताम्बर परंपरा को अपेक्षा दिगम्बर परंपरा में निम्न चार वैमानिक देवों के नाम अधिक हैं-(१) ब्रह्मोत्तर, (2) कापिष्ठ, (3) शुक्र और (4) शतार / वैमानिक देवों की चर्चा के प्रसंग में हमें यह भी स्मरण रखना चाहिए कि दिगम्बर परंपरा द्वारा मान्य कुछ प्राचीन ग्रन्थ मो 12 वैमा‘निक देवों की ही चर्चा करते हैं। वाराङ्गचरित्र में आचार्य जटिल (जटाचार्य) ने 12 वैमानिक देवों को ही चर्चा को है / ' तत्त्वार्थसूत्र को सर्वार्थसिद्धि टीका में भी जहाँ देवों के प्रकारों को चर्चा को गई है वहां तो 12 की संख्या का हो उल्लेख हुआ है, किन्तु इसो अध्याय में आगे जब वैमानिक देवों के नाम गिनाएं गए तो 16 नाम गिना दिए गए हैं। यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ति में 12 और 16 दोनों प्रकार को मान्यताओं का उल्लेख किया है। इन अपवादों को छोड़कर सामान्यतया श्वेताम्बर परंपरा में 12 वैमानिक देवों की तथा दिगम्बर परंपरा में 16 वैमानिक देवों को चर्चा है। कर्म सिदान्त सम्बन्धी मतभेद : (अ) कर्म और आत्मा का सम्बन्ध : * कर्म सिद्धांत जैन परंपरा को एक विशिष्ट अवधारणा है / जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा के बंधन का कारण उसका कर्मों से संश्लिष्ट होना है / जैन दार्शनिकों ने कर्मों के दो रूप माने हैं, एक भाव कर्म और दूसरा द्रव्य कर्म / ' भावकर्म व्यक्ति की मनोदशाओं से संबंधित है, किन्तु द्रव्य कर्म को पौद्गलिक माना गया है। कर्मवर्गणाओं के पुद्गल आत्मा की ओर आकर्षित होकर उससे संशलिष्ट हो जाते हैं। कर्म और आत्मा 1. वाराङ्गचरित्र, 97-9 2. सर्वार्थसिद्धि, 4 / 3 3. वही, 49 4. तिलोयपण्णत्ति, 81451, 708-712 5. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, गाथा 6
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy