________________ 126 : जैनधर्म के सम्प्रदाय ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना है और कुछ ने नहीं माना है। इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा के सभी आचार्यों ने एकमत से यह स्वीकार किया है कि काल भी एक स्वतन्त्र दव्य है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य प्रज्ञापनासूत्र में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जीव और पुद्गल की पर्यायों से पृथक् काल का कोई अस्तित्व नहीं है, जीव और पुद्गल की पर्यायें ही काल की अवधारणा का आधार है।' यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि श्वेताम्बर परंपरा में भी एक वर्ग तो ऐसा अवश्य था जो काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानता था / ऋषिभाषित नामक ग्रन्थ के पार्श्व अध्ययन में जगत की व्याख्या करते हुए केवल पंच-अस्तिकायों का ही उल्लेख हुआ है वहाँ काल की कोई चर्चा नहीं हुई है। संभावना यह है कि जो पापित्य श्रमण महावीर की परंपरा में सम्मिलित हो गए होंगे उन्होंने अपनी पूर्व परंपरा के अनुसार पंच-अस्तिकायों को ही माना होगा, काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में उन्होंने स्वीकार नहीं किया हो, किन्तु परवर्तीकाल में जब काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता मिलो तो उसे अस्तिकाय के रूप में स्वीकार नहीं करके अनस्तिकाय के रूप में ही स्वीकार किया गया है। ___ इस प्रकार न केवल तत्त्वों को संख्या को लेकर हो श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में मतभेद है, वरन् काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में भी उनमें मतभेद था / यह बात भिन्न है कि कुछ श्वेताम्बर आचार्य भी दिगम्बर आचार्यों की तरह काल को स्वतन्त्र द्रव्य मान रहे थे। यहां हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि वर्तमान में श्वेताम्बर परंपरा में ऐसी कोई परंपरा अवशिष्ट नहीं रही है, जो अब काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानती हो, किन्तु आगमिक आधारों के अनुसार प्राचीन काल में तो यह अन्तर था हो / जो आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मान रहे थे उनके अनुसार द्रव्य की संख्या में भी अन्तर आ जाता है। वे केवल पाँच द्रव्यों को ही मानते थे, किन्तु आज दोनों ही परंपराओं में सामान्यतः षडद्रव्यों की अवधारणा को ही स्वीकारा गया है। पुद्गल के बन्ध के नियम संबंधी मतभेद : श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परंपराएँ पुद्गल को एक स्वतंत्र द्रव्य 1. प्रज्ञापनासूत्र, तीसरा पद 2. इसिभासियाई, अध्ययन 31