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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 119 श्वेताम्बर परम्परा में ई० सन् 954 से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के विविध गच्छों के अभिलेख मिलते हैं, इससे प्रतिफलित होता है कि उसके पूर्व भी मूर्तिपूजक सम्प्रदाय अस्तित्व में था। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में अधिकांश गच्छों के सन्दर्भ में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। कुछ गच्छों का तो उत्पत्ति स्थल एवं उत्पत्ति समय भी ज्ञात नहीं होता है उन गच्छों के सन्दर्भ में यह मानना उपयुक्त होगा कि उनकी उत्पत्ति उस शताब्दी के आसपास हुई होगी जिस शताब्दी के प्रतिमालेखों में उन गच्छों का उल्लेख हुआ है। साहित्यिक साक्ष्यों के अभाव में यह ज्ञात करना मुश्किल है कि उनको विशिष्ट मान्यताएँ क्या थी? श्वेताम्बर परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय का उद्भव १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में लोकागच्छ के रूप में हुआ। लोकागच्छ से १७वों शताब्दी में स्थानकवासी सम्प्रदाय विकसित हुआ और स्थानकवासो सम्प्रदाय से ही १८वीं शताब्दी में आचार्य भिक्षु के द्वारा तेरापंथ सम्प्रदाय की स्थापना हुई है। दिगम्बर परंपरा में यह मान्यता है कि आचार्य अर्हबलि ने सर्वप्रथम दिगम्बर परंपरा को सेन, नन्दि, देव और सिंह ऐसे चार वर्गों में विभाजित किया था और यह निर्देश दिया था कि प्रत्येक परंपरा अपने आचार्य के नामान्त में इन शब्दों का प्रयोग करें। कुछ समय तक ये. संघ चलें, किन्तु कालान्तर में इनमें गण और अन्वय भेद होते गये। इसको चर्चा हम पूर्व में कर चुके हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् सामान्यतया ऐसी परम्परा विकसित हुई जिससे प्रत्येक गण अपने को मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय से जोड़ने लगा। यही कारण है कि वर्तमान में प्रायः सभी दिगम्बर मुनि अपने को मूलसंघ और कुन्दकुन्दान्वय का कहते हैं। दिगम्बर परम्परा में द्राविड़संघ, काष्ठासंघ और माथुरसंघ आदि अनेक सम्प्रदायों का अब कोई अस्तित्व नहीं है। .. यापनोय सम्प्रदाय यद्यपि कुछ समय पूर्व तक जनसामान्य एवं विद्वानों के लिए अपरिचित था किन्तु विगत कुछ वर्षों से इस सम्प्रदाय के सन्दर्भ में जो जानकारी उपलब्ध हुई है उस आधार पर यह कहा जा सकता है कि पांचवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक यह सम्प्रदाय अस्तित्व में रहा है क्योंकि इसी अवधि के अभिलेखों में इस सम्प्रदाय का उल्लेख हुआ है। इस अवधि के पश्चात् इस सम्प्रदाय से संबंधित अभि
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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