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________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 117 हो / संभावनाएँ दोनों हो सकती हैं, किसी ठोस निर्णय के अभाव में हम इस गण को दिगम्बर परम्परा के मूलसंघ और यापनीय संघ दोनों से संबंधित मान रहे हैं। 7. बन्दियूरगण : यह गण संभवतः एक शताब्दी तक ही अस्तित्व में रहा है क्योंकि इस गण का उल्लेख करने वाले उपलब्ध तीनों ही अभिलेख ११वीं-१२वीं शताब्दी के हैं।' इन अभिलेखों में महावीर पण्डित, नागदेव सैद्धान्तिक के शिष्य ब्रह्मदेव, महामुनि गुणचन्द्र आदि नाम उल्लेखित हैं, जो संभवतः इस गण के ही आचार्य रहे होंगे। अनेक गणों को तरह इस गण के सन्दर्भ में भी कोई विशेष जानकारी ज्ञात नहीं होती है। उपरोक्त गणों के अलावा कुछ गण ऐसे भी हैं जिनके साथ यापनीय संघ का उल्लेख नहीं होते हुए भी विद्वानों ने उन्हें यापनीय संघ के हो गण माने हैं। प्रो० गुलाबचन्द चौधरी ने बल्हारीगण और उसके अड्डकलिगच्छ को भी यापनीय सम्प्रदाय से संबंधित माना है। कूर्चक संघ : __ मृगेशवर्मा के अभिलेख में सर्वप्रथम यापनीय संघ, निर्ग्रन्थ सघ, कूर्चक संघ और श्वेतपट्ट महाश्रमण संघ-इन चार संघों के नाम उपलब्ध होते हैं:। देवगिरि और हल्सी के अभिलेखों में इस संघ का उल्लेख हुआ है। यद्यपि इन अभिलेखों के माध्यम से इस संघ से संबंधित कोई विशेष जानकारी ज्ञात नहीं होती है तथापि यह तो स्पष्ट होता ही है कि निर्ग्रन्थ, यापनीय और कूर्चक-ये अलग-अलग सम्प्रदाय थे। एक अन्य अभिलेख में कुर्चक संघ के अन्तर्गत वारिषेण आचार्य के संघ का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। .. श्वेताम्बर आगम साहित्य में कूर्चकों का उल्लेख तापस परम्परा के साघुओं को चर्चा के प्रसंग में हुआ है / आगमिक व्याख्या साहित्य में स्पष्ट 1. जैन शिलालेख संग्रह, भाग 5, क्रमांक 70, 125, 86 2. वही, भाग 3, भूमिका पृ० 30 3. वही, भाग 2, क्रमांक 96 4. वही, भाग 2, क्रमांक 98 5. वही, भाग 2, क्रमांक 99 6. वही, भाग 2, क्रमांक 102
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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