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________________ 96 : जैनधर्म के सम्प्रदाय मिलते हैं जिनसे ज्ञात होता है कि आचारगत मतभेदों के कारण विभिन्न संघ एवं सम्प्रदायों की उत्पत्ति होती रही है। शताब्दियों पूर्व लोकाशाह ने शिथिलाचार के विरुद्ध आवाज उठाकर श्रमण संस्कृति की धारा को अविरल प्रवाहित करने में अविस्मरणीय योगदान दिया था, उसी परम्परा में आचार्य हुकमीचन्दजी म० सा० का नाम विशेष स्थान रखता है। हुकमीचन्दजी म. सा. की दीक्षा ई० सन् 1822 में हुई थी तथा उनकास्वर्गवास 1860 ई० में हुआ था।' साधुमार्गी जैन संघ आचार्य हुकमीचंदजी म० सा० को अपना आद्य आचार्य मानता है। .. आचार्य हुकमीचंदजी म. सा. ने अपने समय में व्याप्त शिथिलाचार को हटाने के लिए, संयम पालन की अक्षुण्णता बनाये रखने के लिए तथा आत्मशुद्धि के लिये संघ तथा समाज में शुद्धाचार का एक विशिष्ट आदर्श प्रस्तुत किया था। इसके अनुसार आपने स्वयं ने तो शुद्धाचार के नियमोपनियमों का कठोरतापूर्वक पालन किया ही था, साथ ही अपनी नेत्राय में रहने वाले साधु-साध्वियों से भी उसी रूप में उसका पालन करवाया। फलतः साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं का एक विशाल समूह आपका अनुयायी हो गया था। यह समूह आज साधुमागी जैन संघ के नाम से पहचाना जाता है। इस संघ में वर्तमान में लगभग 300 साधुसाध्वियां हैं। इस संघ की स्थापना से पूर्व की आचार्य परम्परा का उल्लेख श्री ज्ञानमुनिजी म. सा. ने अपने ग्रन्थ "अष्टाचार्य गौरव गंगा" में विस्तारपूर्वक किया है। विस्तारभय के कारण हम वह उल्लेख यहां नहीं कर रहे हैं। पूज्य हुकमीचंदजी म. सा. से लेकर वर्तमान तक निम्न आठ आचार्य हुए हैं (1) आचार्य श्री हुकमीचंदजी म. सा., (2) आचार्य श्री शिवलालजी म. सा०, (3) आचार्य श्री उदयसागरजी म. सा., (4) आचार्य श्री चौथमलजी म. सा०, (5) आचार्य श्री श्रीलालजी म. सा., (6) आचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा., (7) आचार्य श्री गणेशीलालजी म. सा. और (8) वर्तमान आचार्य श्री नानालालजी म. सा. / 3. रत्नवंशीय परम्परा : ई० सन् 1952 में श्रमण संघ की स्थापना के समय रत्नवंशीय परंपरा 1. शान मुनि-अष्टाचार्य गौरव गंगा, पृ० 6-24
SR No.004297
Book TitleJain Dharm ke Sampraday
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuresh Sisodiya
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1994
Total Pages258
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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