________________ नीतिवाक्यामृतम् धान्त-- (न तथा कर्पूररेणुना प्रीतिः केतकीनां यथाऽमेध्येन // 126 // . केतकी के वृक्ष को कपूर की रज से वह प्रसन्नता नही होती जितनी अमेध्य वस्तु गोबर आदि की खाद से / केतकी का वृक्ष कपूर का चूरा डालने से नहीं किन्तु खाद डालने से बढ़ता है) __ अधिक क्रोध से प्रभुता की हानिअतिक्रोधनस्य प्रभुत्त्वमग्नौ पतितं लवणमिव शतधा विशीर्यते / / जो पुरुष अत्यन्त क्रोधी होता है उसकी प्रभुता अग्नि में पतित * लवण खण्ड अर्थात् नमक के टुकड़े की भांति सौ-सौ टुकड़े हो जाती है। अर्थात. खण्डित होकर नष्ट हो आती है / गुणों के नष्ट होने का कारण- (सर्वान् गुणान् निहन्त्यनुचितज्ञः // 135 उचित अनुचित का ज्ञान न रखनेवाला व्यक्ति अपने समस्त गुणों को नष्ट कर देता है / जिसे भले बुरे का ज्ञान न रहा वह गुणशाली होते हुए भी निर्गुण है। गुप्त रहस्य दूसरों से न कहना चाहिए(परस्य मर्मकथनम् आत्मविक्रय एव / / 136) दूसरे को अपना गुप्त भेद बता देना उसके हाथ अपने को बेच देना ही है / क्योंकि तब उस व्यक्ति से यह डर सदा बना रहेगा कि कहीं यह व्यक्ति मेरा भेद न खोल दे और मैं विपत्ति में पड़ जाऊं इस प्रकार उसकी सदा अनुनय-विनय ही करनी पड़ेगी। शत्रु पर विश्वास घातक हैतदजाकृपाणीयं यः परेषु विश्वासः // 40 // शत्रु पर विश्वास करना 'अजाकृपाणीय' है बकरी बकरे का मांस खाने वालों का खड्ग कब बकरी या बकरे पर गिरेगा ; जैसे यह निश्चय नहीं उसी प्रकार विश्वस्त शत्रु कब वध कर देगा वह निश्चय नहीं कहा जा सकता। अतः शत्रु पर विश्वास उचित नहीं। चञ्चलता से हानि- ' (क्षणिकचित्तः किंचिदपि न साधयति / / 141 / / ) चञ्चल चित्त वाला व्यक्ति कोई भी काम पूरा नहीं करता। राजा की स्वेच्छाचारिता का दोष(स्वतन्त्रः सहसाकारित्वात् सर्व विनाशयति / / 142 / /