________________ 42 नीतिवाक्यामृतम् . असमर्थ अस्ववेत्ता की अनुपयोगिताकिं तेन सहायेनाखज्ञेन मन्त्रिणा यस्यात्मरक्षणेऽप्यस्खं न प्रभवति // 13 // . उस अस्त्र वेत्ता सहायक मन्त्री से क्या लाभ जिसका अस्त्र आत्मरक्षा में भी समर्थ न हो। __ उपधा का लक्षणधर्मार्थकामभयेषु व्याजेन परचित्तपरीक्षणमुपधा / / 14 // धर्म, अर्थ, काम और भय के विषय में गुप्तचर के द्वारा किसी व्याज से शत्रु राजा के चित्त की परीक्षा 'उपधा' है / 'उपधा' राजा के मन्त्री के लिये गुण है ) / . सोदाहरण अकुलीन मन्त्री के दोष अकुलीनेषु नास्त्यपवादाद् भयम् // 15 // ... जो मन्त्री कुलीन नहीं है उसे लोक निन्दा का भय नहीं होता अतः वह राजा का कोई भी अहित कर सकता है। 'अलर्कविषवत् कालं प्राप्य विकुर्वते विजातयः // 16 // . पागल कुत्ते के विष के समान विजातीय मन्त्री समय पाकर विरोध करते हैं। विशेषार्थ-जिस प्रकार पागल कुत्ते का विष कुछ समय बाद वर्षाकाल में अपना विकृत रूप प्रदर्शित करता है उसी प्रकार दूसरी जाति का मन्त्री कुछ समय तक राजा के अनुकूल चलकर बाद में प्रतिकूल हो सकता है। कुलीनता का गुणतदमृतस्य विषत्वं यः कुलीनेषु दोषसंभवः // 17 // कुलीन पुरुष अथवा मन्त्री में विश्वासघात आदि दोषों का होना अमृत के विष हो जाने के समान है / अर्थात् असंभव है। ज्ञानी होने पर भी मन्त्री के ज्ञान की व्यर्थताघटप्रदीपवत्तज्ज्ञानं मन्त्रिणो यत्र न परप्रतिबोधः // 18 // ) जिस प्रकार घड़े के भीतर जलाया गया दीपक बाहर अपना प्रकाश नहीं प्रसारित कर सकता, अतः व्यर्थ होता है उसी प्रकार मन्त्री अथवा किसी विद्वान् का वह ज्ञान व्यर्थ है जो राजा अथवा अन्य व्यक्ति का प्रतिबोध न कर सके अर्थात् अपनी बात दूसरों को समझा सकने की कला यदि मनुष्य में - नहीं है तो उसका ज्ञानी होना व्यर्थ है। सभीत मन्त्री की व्यर्थता- तेषां शस्त्रमिव शास्त्रमपि निष्फलं येषां प्रतिपक्षदर्शनाद् भयमन्व. यन्ति चेतांसि // 16 //