________________ प्रकीर्णसमुद्देशः 163 (ऋणदातुरासन्नं फलं परोपास्तिः कलहः परिभवः प्रस्तावेऽर्थाः | लाभश्च // 16 // ऋणदाता को तत्काल यही फल मिलता है कि उसे दूसरे की उपासना करनी पड़ती है अर्थात जिसे ऋण दिया है उसके यहां जाकर मांगना पड़ता है, कलह होता है, ऋण लेने वाले के बार। तिरस्कार होता है और अपने काम के समय उसे अपना धन नहीं मिलता।) अदातुस्तावत् स्नेहः सौजन्यं प्रियभाषणं वा साधुता च यावन्नावाप्तिः // 17 // कर्ज लेकर फिर उसे न देने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति कर्ज लेनेवाले से तभी तक स्नेह, सजनता और प्रिय भाषण तथा साधुता पूर्ण व्यवहार रखता है जब तक कि उसे अर्थ अर्थात् कर्ज नहीं मिल जाता।) (तदसत्यमपि नासत्यं यत्र न सम्भाव्यार्थहानिः / / 18 // झूठ बोलकर भविष्य की किसी विशेष अर्थहानि को बचाया जा सके अथवा महान कार्य सिद्ध हो सके तो वह झूठ-मूठ नहीं है।) . (प्राणवधे नास्ति कश्चिदसत्यवादः / / 16 // झूठ बोलकर किसी निरपराध के प्राण बचाए जा सकें तो वह मूठ- . भूठ नहीं है। (अर्थाय मातरमपि लोको हिनस्ति किं पुनरसत्यं न भाषते // 20 // - धन के लिये लोग माता को भी मार डालते हैं तो क्या झूठ न बोलेंगे। अत: धन के सम्बन्ध में विश्वास नहीं करना चाहिए चाहे कितनी ही शपथ कोई क्यों न ले। (सत्कला सत्योपासनं हि विवाहकर्म, दैवायत्तस्तु वधूवरयोनिर्वाहः / / 21D सत् कलाओं की प्राप्ति, सस्य भाषण में स्वाभाविक रुचि ये विवाह के कर्तव्य-कर्म हैं और वधू तथा वर का निर्वाह पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति तो भाग्याधीन ही होती है। (रतिकाले तन्नास्ति कामार्तो यन्न ब्रूते पुमान् , न चैतत्प्रमाणम् // 22 // काम बाधा से पीड़ित मनुष्य रति के समय अपनी प्रिया के विश्वास और प्रसन्नता के लिये ऐसी कौन सी बात है जो नहीं कहता किन्तु वह सब प्रामाणिक नहीं होती। (तावत् स्त्री-पुरुषयोः परस्परं प्रीतिर्यावन्न प्रातिलोम्यं कलहो रतिः कैतवं च / / 23 / / . 13 नी० .