________________ विवादसमुहेशः 155 राजा की सभा के.सभासद सूर्य के समान यथार्थ तत्त्व को प्रकाशित करने की प्रतिभा से सम्पन्न होते हैं / (अदृष्टाश्रतव्यवहाराः परिपन्थिनः सामिषाः न सभ्याः // 4 // लोक व्यवहार ( कानून ) के अनुभव और अध्ययन से शून्य वादी प्रतिवादी अथवा राजा के शत्रु एवं सहज ईर्ष्या द्वेषयुक्त व्यक्ति राजा के न्यायालय के सदस्य होने योग्य नहीं होते। लोभपक्षपाताभ्यामयथार्थवादिनः सभ्याः सभापतिश्च सद्यो मानार्थहानि लभेरन् // 5 // ___ लोभ अथवा पक्षपातपूर्ण दृष्टि के कारण अयथार्थवादी-ठीक निर्णय न देनेवाले सभासदों और सभापति-न्यायाधीश अथवा राजा की तत्काल मान-- हानि और अर्थहानि होती है। तत्रालं विवादेन यत्र स्वयमेव सभापतिः प्रत्यर्थी॥६॥ जिस विवाद में स्वयं सभापति-न्यायाधीश ही विरोधी अथवा पक्षपातपूर्ण हो जाय वह विवाद अथवा मुकदमा व्यर्थ है / क्योंकि न्यायाधीश के अनु. कूल सब सभासद बोलेंगे। सभ्यसभापत्योरसामञ्जस्येन कुतो जयः, किं बहुभिश्छगलः श्वा न क्रियते / / 7 // ) सभासदों और सभापति में जब ऐकमत्य न होगा तब विजय की आशा करना व्यर्थ है / क्पा बहुत से आदमी कह कर बकरे को कुत्ता नहीं बना देते / यहां हितोपदेश की उस कथा का सन्दर्भ है जिसमें एक ब्राह्मण जब बकरे को लादे हुए जा रहा था तब धूतों में सलाह करके उस बकरे को अपने खाने के लिये छीनना चाहा / वे एक एक करके थोड़ी-थोड़ी दूरी पर खड़े हो गये और अपने पास आते ही उस ब्राह्मण से कहते हैं कि क्या ब्राह्मण होकर कुत्ते को ढोते फिरते हो ? इस प्रकार लगातार कई आदमियों के कहने पर ब्राह्मण को संशय हो गया और उसने बकरे को मार्ग में ही छोड़ दिया जिसे धूर्त लोग ले गये / मुकदमें में भी जब बहुसंख्यक सभासद किसी असत् पक्ष को भी सत् सिद्ध करने लगेंगे तो उन्हीं की जीत होगी। पराजित व्यक्ति के चिह्न। विवादमास्थाय यः सभायां नोपतिष्ठेत, समाहूतोऽपसरति, पूर्वोक्तमुत्तरोक्तेन बाधते, निरुत्तरः पूर्वोक्तेषु युक्तेसु, युक्तमुक्तं. न प्रतिपद्यते, स्वदोषमनुवृत्य परदोषमुपालभते, यथार्थवादेऽपि द्वेष्टि सभामिति पराजितलिङ्गानि // 7 //