________________ 153 व्यवहारसमुद्देशः (सा तीर्थयात्रा यस्यामकृत्यनिवृत्तिः / / 51 // तीर्थ यात्रा वही सफल है जिसमें मनुष्य दुष्कृत्य का परित्याग कर दे। (तत् पाण्डित्यं यत्र वयोविद्योचितमनुष्ठानम् / / 52 / / ) पाण्डित्य वही सफल है जिसमें अवस्था और विद्या के अनुरूप आचरण किया जाय। तिचातुर्य यत् परप्रीत्या कार्यसाधनम् // 53 // चतुराई वही है जिसमें दूसरे को प्रसन्न रख कर अपना कार्य सिद्ध किया जाय / (तल्लोकोचितत्वं यत् सर्वजनादेयत्वम् / / 540 लोकोचित वही कर्म है जिससे मनुष्य सबका प्रिय पात्र बन जाय / तित सौजन्यं यत्र नास्ति परोद्वेगः // 55 // सज्जनता वही है जिसमें दूसरे को किसी प्रकार का उद्वेग ( भय और त्रास ) न प्रतीत हो। . तिद्धीरत्वं यत्र यौवने नापवादः // 560 धीरता वही है जिसमें युवावस्था में कोई अपयश न हो। (तत्सौभाग्यं यत्रादानेन वशीकरणम् / / 57D मनुष्य का सौभाग्य यही है कि वह किसी को कुछ दे भी नहीं और लोग उसके वश में रहें। सा सभारण्यानी यस्यां न सन्ति विद्वांसः // 58 ) / वह सभा अरण्यस्थली है जिसमें विद्वान् न हों। किं तेनात्मनः प्रियेण यस्य न भवति स्वयं प्रियः // 54 // कोई व्यक्ति अपना प्रिय तो हो, किन्तु उसके लिये आप प्रिय न हो तो उस प्रियता से क्या लाभ ? अर्थात् प्रीति दोनों ओर से समान होनी चाहिए। (स किं प्रभुर्यो न सहते परिजनसम्बाधम् // 6 // वह स्वामी श्लाघनीय नहीं है जो सेवकों की बाधाओं और आवश्यकताओं को नहीं सहन कर सकता, अर्थात् सेवकों की आवश्यकता के अनुकूल यदि व्यय न कर सके तो वह स्वामी ठीक नहीं है। न लेखा वचनं प्रमाणम् / / 61 / / लेख से बढ़कर वचन को प्रमाण नहीं माना जाता। .. (अनभिज्ञाते लेखेऽपि नास्ति सम्प्रत्ययः / / 62 // ) बिना हस्ताक्षर आदि का अपरिचित लेख भी विश्वसनीय नहीं होता।