________________ 133 दिवसानुष्ठानसमुद्देशः सूर्य के आतप से संतप्त व्यक्ति यदि तुरन्त, बिना विश्राम किये हो स्नान करता है तो उसको दृष्टि मन्द पड़ जाती है और शिर में पीड़ा होती है। (बुभुक्षाकालो भोजनकालः / / 26 / ) भोजन का उचित समय वही है जब कि मनुष्य को भूख लगे। (अक्षुधितेनामृतमप्युपभुक्तश्च भवति विषम् // 30 // बिना भूख के खाया गया अमृत भी विष हो जाता है। (जठराग्नि वनाग्नि कुवेन्नाहारादौ वज्रकं वलयेत् // 31 // जठराग्नि को कठोर से कठोर वस्तु को पचा डालनेवाली बनाने की दृष्टि से भोजन से पूर्व गदा मुद्गर आदि घुमावे / ) (निरन्नस्य सर्व द्रवद्रव्यम् अग्नि नाशयति // 32 // भोजन के समय बिना अन्न के केवल घी, दूध अथवा चाय, शरबत मात्र पीने से जठराग्नि नष्ट हो जाती है। (अतिश्रमपिपासोपशान्तौ पेयायाः परं कारणमस्ति // 33 // अत्यन्त श्रम करने के अनन्तर बारम्बार लगने वाली प्यास की शान्ति के लिये मण्डपान ( चावल का माड़ पीना) सर्वोत्तम है। (घृताधारोत्तरं भुजानोऽग्नि दृष्टिश्च लभते // 34 // घृत खाने के अनन्तर भोजन करने से मनुष्य की जठराग्नि दीप्त होती है और दृष्टि अर्थात् नेत्र की ज्योति बढ़ती है। ' सकृद् भूरिनीरोपयोगो वह्निम् अवसादयति // 35 // ) एक बार ही बहुत जल पी लेने से जठराग्नि नष्ट हो जाती है। (क्षुत्कालातिक्रमादन्नद्वेषो देहसादश्च भवति // 36 // भूख लगने पर भोजन न करने से अन्न से अरुचि हो जाती है और देह में शिथिलता आती है। (विध्मापिते वह्नौ किं नामेन्धनं कुर्यात् // 37 // ) .. अग्नि बुझ कर जब राख हो जाय तब उसमें ईंधन क्या करेगा ? मनुष्य को जब खूब भूख लगी हो तब वह यदि भोजन नहीं करता तो उसकी जठराग्नि शान्त हो जाती है / अनन्तर भोजन करने से वह नहीं पचता। यो मितं भुक्ते स बहु भुङ्क्ते // 30 // जो थोड़ा खाता है वह बहुत खाता है। अर्थात् स्वरूप भोजन सदा सुख कर और दीर्घायु दाता होता है। (अप्रमितम् , असुखं, विरुद्धम् , अपरीक्षितम् , असाधुपाकम् , अतीतरसम् , अकालं चान्नं नानुभवेत् // 36 // ) बिना मात्रा का, अहित कर, अपनी प्रकृति के प्रतिकूल, बिना परीक्षा