________________ राजरक्षासमुद्देशः 125 प्रचुर धनधान्य से सन्तुष्टकर सुरक्षित होने पर भी वेश्या अपनी प्रकृति अर्थात् परपुरुष समागम की इच्छा नहीं छोड़ती। प्राणियों की प्रकृति की अपरिवर्तनीयताया यस्य प्रकृतिः सा तस्य देवेनापि नापनेतुं शक्यते // 53 // जिसकी जो प्रकृति सहज-स्वभाव होता है उसे विधाता भी नहीं दूर कर सकता। (सुभोजितोऽपि श्वा किमशुचीन्यस्थीनि परिहरति / / 54 सुन्दर भोजन कराने पर भी क्या कुत्ता अपवित्र हड्डियों को खाना छोड़ देता है ? अर्थात् नहीं। (न खलु कपिः शिक्षाशतेनापि चापल्यं परिहरति / / 55 // ) बहुत सिखाने पर भी बन्दर अपनी चञ्चलता नहीं छोड़ता। (इक्षरसेनापि सिक्तो निम्बः कटुरेव / / 56 // ईख के रस से भी सीची गई नीम कड़वी ही रहती है। निकट सजातीयों के सम्मान-सम्मान का विचार (सन्मानादवसादो कुल्यानामपरिग्रहहेतुः / / 57D कुल्य अर्थात् स्वजातीयों को अधिक सन्मान न देने से उनसे सम्बन्ध छटता जाता है। अर्थात् उनका अधिक सन्मान और संग्रह नहीं करना चाहिए। तन्त्रकोशवद्धिनी वृत्तिर्दायादान विकारयति // 58 / / ) अपने दायादों अर्थात् कुटुम्बियों को उनका सैन्य और कोश बढ़ाने वाली जीविका प्रदान करने से उनके चित्त में विकार उत्पन्न होता है। अर्थात् (अपना सैन्य बल और कोश बल बढ़ जाने पर अपना कुटुम्बी स्वयं राजा बन बैठने की घात सोचता है) भक्तिविश्रम्भादव्यभिचारिणं कुल्यं पुत्रं वा संवर्धयेत् // 56 // ) किस प्रकार के कुटुम्बी अथवा पुत्र की शक्ति बढ़ानी चाहिए इस पर आचार्य प्रवर कहते हैं कि अपने प्रति जिसके दृढ़ अनुराग और भक्ति की पूर्ण प्रतीति निश्चित हो ऐसे दायाद अथवा पुत्र का विशेष सम्बद्धन करना चाहिए सबका नहीं।) विनियुञ्जीत उचितेषु कर्मसु / / 60 // पूर्वस्त्र में निर्दिष्ट दायाद को उसके अनुराग और भक्ति का परीक्षण करने के निमित्त उसे उचित कार्यों में नियुक्त फरे। भत्तरादेशं न विकल्पयेत् // 61 // स्वामी के आदेश-पालन में किसी प्रकार का सोच-विचार न करे।