________________ 114 नीतिवाक्यामृतम् (आश्रितभरणे, स्वामिसेवायां, धर्मानुष्ठाने, पुत्रोत्पादने च खलु न सन्ति प्रतिहस्ताः // 20 // ' अपने सहारे जीने वालों का भरण-पोषण, स्वामी की सेवा, धर्म-कार्यों का अनुष्ठान धौर पुत्रोत्पत्ति का कार्य इन चार कामों में दूसरे से प्रतिनिधित्व नहीं कराया जाता। आश्रितों को दान द्वारा सन्तुष्ट करने की विधि(तावद् देयं यावदाश्रिताः सम्पूर्णतामाप्नुवन्ति / / 21 / / ) अपने आश्रितों को स्वामी को इतमा धन देना चाहिए जिससे वह पूर्ण सन्तुष्ट हो सकें। ___ सेना का राजा के प्रति वर्तव्य(न हि स्वं द्रव्यमव्ययमानो राजा दण्डनीयः // 22 // ) - राजा पदि अपना धन ( सेवक का, सैन्य का वेतन आदि ) न भी तब भी उस पर कुपित अथवा उसे दण्डित न करना चाहिए / अर्थात् सेना को चाहिए कि वह विद्रोह करके राजासे हठात् वेतन लेने की चेष्टा न करे / ) (को नाम सचेताः स्वगुडं चौर्यात् खादेत // 23 // कौन ऐसा समझदार व्यक्ति होगा जो अपना गुड़ चोराकर खायेगा / (किं तेन जलदेन यः काले न वर्षति / / 24 // ) जो समय पर वर्षा न करे उस मेघ से क्या लाभ ? से किंस्वामी य आश्रितेषु व्यसने न प्रविधत्ते // 25 // वह स्वामी निन्दनीय है जो अपने आधितों की आपत्तिकाल में सहायता नहीं करता। राजा का सेना के प्रति संव्य(अविशेषज्ञ राज्ञि को नाम तस्यार्थे प्राणव्ययेनोत्सहेत // 26 // ) जो राजा गुणग्राही और कृतज्ञ नहीं है उसके लिये कौन प्राण देने को उत्साहित होगा? [इति बलसमुद्देशः] 23. मित्रसमुद्देशः मित्र का लक्षण(यः सम्पदीव विपद्यपि मेद्यति तन्मित्रम् // 1 // ) जो सुख के दिनों के समान दुःख के दिनों में भी स्नेह करता है वह 'मित्र' है।