________________ 12 नीतिवाक्यामृतम् . "अर्थस्य पुरुषो दासः दासस्त्वर्थो न कस्यचित् / इति सत्यं महाराज बद्धोऽस्म्यर्थेन कौरवैः // " (को नाम धनहीनो न भवति लघुः // 60 // कौन धनहीन पुरुष छोटा नहीं हो जाता? ( पराधीनेषु नास्ति शर्मसम्पत्तिः // 61 // पराधीन व्यक्ति के पास सुखरूप सम्पत्ति नहीं होती / अर्थात् पराधीनता में सुख कहाँ ? विद्या की प्रशंसा( सर्वधनेषु विद्यैव प्रधानमहार्यत्वात् सहानुयायित्वाञ्च / / 62 / / सब प्रकार के धनों में विद्या ही प्रधान है क्योंकि उसका कोई अपहरण नहीं कर सकता और मनुष्य जहां भी जाता है वह उसके संग लगी रहती है। (सरित् समुद्रमिव नीचमुपगतापि विद्या दुर्दर्शमपि राजानं संगमयति परन्तु भाग्यानां भवति व्यापारः // 63 / ) निम्न मार्ग से बहने वाली भी नदी जिस प्रकार अपने साथ बहने वाले छोटे से छोटे और हलके से हलके घास-फूस को भी समुद्र से मिला देती है उसी प्रकार नीच और क्षुद्र पुरुष के भी पास की विद्या उसे दुर्लभ दर्शन वाले राजा से मिला देती है, किन्तु वहाँ पहुँच जाने पर अल्प या अधिक अर्थलाभ भाग्य के ऊपर निर्भर होता है। संयोजयति विद्यैव नीचगापि नरं सरित् / समुद्रमिव दुईर्ष नृपं भाग्यमतः परम् / / सा खलु विद्या विदुषां कामधेनुर्यतो भवति समस्तजगतः स्थितिज्ञानम् / / 64 // विद्वानों के लिये वह विद्या कामधेनु के समान है जिससे समस्त जगत् को स्थिति का ज्ञान होता है / ( संभवतः यहाँ ज्योतिष विद्या की प्रशंसा की गई है) लोक व्यवहार जानने का महत्व(लोकव्यवहारज्ञो हि सर्वज्ञोऽन्यस्तु प्राज्ञोऽप्यवज्ञायत एव // 65 // ) लोक व्यवहार को जाननेवाला ही सर्वज्ञ है दुसरा तो विद्वान् होने पर भी अनाहत होता है। प्रज्ञापारमित का लक्षणते खलु प्रज्ञापारमिताः पुरुषाः ये कुर्वन्ति परेषां प्रतिबोधनम् // 63 / / ) उन पुरुषों को "प्रज्ञापारमित" कहते हैं जो दूसरों को उनके कर्तव्य का बोध कराने में समर्थ होते हैं /