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________________ [3] होकर जर्मनी में हुग्रा, यह हमारी विद्योपासना या विद्याप्रियता कितनी है, इसके मापदण्ड का सूचक है / जर्मनी में महापण्डित ब्राउनो लाइबिश (Bruno Liebich) ने लिपजिग शहर से चान्द्र व्याकरण को सर्वप्रथम प्रकाशित किया। सूत्र और वृत्तिसहित संपूर्णरूप से रोमनलिपि में यह व्याकरण उपलब्ध कराने का श्रेय महापण्डित ब्राउनों को ही मिला है / मेरे इस सम्पादन का मुख्य आधार वही रोमनलिपि में मुद्रित जर्मन-प्रावृत्ति है / अतः इस कार्य के लिये महापण्डित ब्राउनो का मैं बहुत-बहुत आभारी हूँ। - हमारे स्नेहास्पद एवं श्रद्धेय प्राचार्य श्रीजिनविजयजी पुरातत्व के तो प्रकाण्ड पण्डित हैं ही, तदुपरांत उसके अनुसन्धान में पुरातत्वविद्या की अनेकानेक उपयोगी पुस्तकों के प्रकाशन के भी उत्कट प्रेमी हैं और दुर्लभ, अलभ्य प्राचीन ग्रन्थों को प्रकाश में लाने का भी उनका प्रत्युत्कट प्रयत्न रहता है। उनका सम्पूर्ण जीवन ही इसी प्रवृत्ति में व्यतीत हुआ है। उमर लगभग अस्सी के प्रासपास है, आँखें भी वहुत कमजोर हैं, शरीर भी काम देने से इन्कार कर रहा है तो भी दृढसंकल्पी आचार्यश्री अपने प्रियकार्य से रुकते नहीं हैं। मेरा और उनका परिचय 1920 ई. से पहले का है / तबसे में आजतक देख रहा हूं कि लगातार अविरत भाव से उनकी प्रवृत्ति में पूर्णविराम तो नहीं ही है, पर अर्द्धविराम और अल्पविराम तक मैने नहीं देखा। उनकी यह प्रवृत्ति भारत ही नहीं भारत से बाहर भी सुविश्रुत है / उन्होंने आज तक 'सिंघी-जैन-ग्रन्थमाला' में और 'राजस्थान-पुरातन-ग्रन्थमाला' में सैंकड़ों ग्रन्थ प्रकाशित कर दिये हैं / और प्राज भी यह कार्य चल ही रहा है। वे खुद ग्रन्थों का संशोधन-संपादन करते हैं तथा तत्तद्विषय के साक्षरों द्वारा भी यह कार्य कराते हैं। उनके मन में खयाल हुआ कि चान्द्रव्याकरण भारतीय ग्रन्थ है, उसके विधाता भी भारतीय ही हैं। फिर भी यह ग्रन्थ रोमनलिपि में सर्वप्रथम जर्मनी में प्रकाशित हो गया। भारत में इसका नाम केवल “इन्द्रश्चन्द्रः" वाले श्लोक में ही देखा जाता है, पर इस ग्रन्थ का न किसी ने संशोधन-सम्पादन किया और न प्रकाशन ही किया। यह भारी लज्जा की बात है / इस शर्म को दूर करने के लिये उन्होंने निश्चय किया कि 'राजस्थान-पुरातन-ग्रन्थमाला' में इसको स्थान दिया जाय और प्रारंभ में इसके मूल सूत्रपाठ को ही प्रकाशित किया जाय / .. मेरी रुचि व्युत्पत्ति विद्या में होने से वे जानते थे कि व्याकरणशास्त्र के सम्पादन और संशोधन में भी मेरी विशेष प्रीति है, अतः यह कार्य उन्होंने मुझे सौंपा। मैने बड़े रस के साथ इसका संशोधन और सम्पादन कर दिया और अब यह पाठकों के सामने आ रहा है /
SR No.004292
Book TitleChandravyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1889
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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