________________ eta सुषामावयः -- स्तोक] चान्द्रव्याकरणम् [185 सुषामादयः 6 / 4 / 86 / सेहिङ 1 / 4 / 21 / सु-संख्यादेः 4 / 4 / 126 / सोः 5 / 166 / सु-सर्व-अर्धात् जनपदस्य 6 / 1 / 23 / सोः स्य-सनोः 6 / 4 / 67 / सु-सू-धाञ -गृधे : क्रन् (उणादि) 3 / 11 / सोढः 6 / 4 / 65 / सुस्नातादीन् पृच्छति 3 / 4 / 46 / सोम-वरुणयोः ईत् 5 / 2 / 25 / सु-हरित-तृण-सोमात् जम्भात् 4 / 4 / 114 / सोमात् टयण् 3 / 1 / 28 / सुहृद-दुहृदौ मित्र-अमित्रयोः 4 / 4 / 138 / सो लोपः अनन्त्यस्य 1 / 4 / 36 / सूक्त-साम्नोः छः 4 / 2 / 153 / सोऽस्य ग्रामणीः 4 / 2 / 83 / सूचन-अवक्षेपण-सेवा-साहस-यत्न-कथा- सोऽस्य प्राप्तः समयात् 4 / 1 / 123 / उपयोगेषु कृषः 11478 / सोऽस्य अभिजनः गिरिभ्यः शस्त्रसूचेः स्मन् (उणादि) 2 / 102 / जीविषु 3 / 3 / 58 / सूतका-पुत्रका-वृन्दारकाः 6 / 1 / 75 / सौ अनडुहः 5 / 4 / 36 / सु-उत्-पूति-सुरभेः गन्धस्य इत् 4 / 4 / 123 / सो असंबुद्धौ 5 / 3 / 10 / सूत्रात् संख्याकात् 3 / 1 / 42 / सौ वा इतौ 5 / 1 / 126 / सूर-मर्त-क्षेम-यविष्ठात् 4 / 4 / 27 / / सौवीरेषु वा 2 / 4 / 80 / सूर्य-अगस्त्ययोः छे च 5 / 3 / 153 / स्कृञः 6 / 2 / 66 / सूर्या देवी 2 / 3 / 47 / स्कोः संयोगाद्योः अन्ते च 6 / 3 / 58 / सू-विषिभ्यां कित् (उणादि) 1 / 30 / स्तनि-हृषि-पुषि-गडि-मडिभ्यो णे इत्नुच् सृ-घस्-अदः क्मरच् 1 / 2 / 106 / (उणादि) 1 / 26 / सृजः श्राद्धे 1 / 4 / 103 / स्तम्ब-शकृद्भयां व्रीहि-वत्सयोः इन् 112 / 8 / सृजि-दृशः 5 / 4 / 163 / स्तम्भु-स्तुम्भु-स्कम्भु-स्कुम्भु-स्कुभ्यः / सृजि-दृशोः झलि अम् 6 / 2 / 5 / 1 / 116 सृजेः असुम् च (उणादि) 1 / 19 / / स्तम्भेः 6 / 4 / 52 / सृ-भृ-वृ-स्तु-द्रु-स्र-श्रुवो लिट: 5 / 4 / 158 / स्तुतौ भ्रातुः 4 / 4 / 146 / / सेटि 5 / 3 / 53 / स्तु-सुगः अतङि 5 / 4 / 169 / सेनाङ्गानां बहुत्वे 2 / 2 / 56 स्तु-स्वञ्ज-सिवादीनाम् वा अड्व्यवाये सेनान्त-कारु-लक्ष्मणात् इञ् च 2 / 4 / 85 / 6 / 4 / 56 / सेनाया वा 3 / 4 / 43 / स्तेयम् 4 / 1 / 143 / सेना-सुरा-शाला-निशा वा 2 / 272 / स्तोः श्च-ष्टुभ्यां तौ 6 / 4 / 136 / सेयुवो वा 2 / 1 / 36 / स्तोः षणि 6 / 4 / 48 // सेयुवो वा 6 / 2 / 54 / स्तोक-अल्प-कृच्छ्र-कतिपयात् असत्त्वार्थात् सेनासे 6 / 376 / करणे 2 / 187 /