________________ चान्द्रव्याकरणम् - 3 / 68 / 180] [शृतं-- षपूर्व शृतं क्षीर-हविषोः 5 / 1 / 33 / श्यः अस्पर्श 6 / 3 / 83 / शृङ्खलं बन्धनं करभे 4 / 2 / 84 / श्रविष्ठा-आषाढात् छण् 3 / 3 / 6 / शृङ्ग-अङ्ग-भृङ्गाः (उणादि) 2 / 26 / श्राद्धम् अनेन अद्य भुक्तं ठन् च शृङ्गात् 4 / 2 / 140 / 4 / 2 / 61 / शृङ्गि-भृङ्गि-मृजि-कजेः चित् (उणादि) श्रि-भुवः अप्रादेः 1 / 3 / 14 / __3 / 22 / श्रि--- -ज्वाम् विप् दीर्घश्च (उणादि). श-वन्देः आरुः 1 / 2 / 120 / श-वसि-वपि-राजि-वृ-हनि-नभेः इञ् श्रु-कृव-धिवां श-कृ-धि च 1 / 1 / 66 / (उणादि) 1156 / श्रुवः अनाङ-प्रते: 1 / 4 / 114 / श वायु-वर्ण-निवृतेषु 1 / 3 / 10 / श्रु-श्रि-यु-वहो नित् (उणादि) 176 / शे मुचादीनाम् 5 / 4 / 11 / श्रु-सद्-वसः लिट् वा 112 / 73 / शे स्यन् 1 / 4 / 104 / श्रि-उग्-ऊर्णोः कितः 5 / 4 / 136 / . शेषात् वा 4 / 4 / 142 / श्लिषः 1 / 1166 / . शेषे 3 / 2 / 1 / श्लिष-शीङ-स्था-आस-वस-जन-रुह-जभ्यः शेषे लृट् 1 / 3 / 116 // 1 / 2 / 66 / शेषे लोप: अदः 5 / 4 / 57 / श्लिषेः इतः अत् च (उणादि) 2 / 77 / शोणादिभ्यः 2 / 3 / 41 // श्वगणात् वा . 3 / 4 / 6 / शोभते 4 / 1 / 11 / श्व-युवन्-मघोनाम् अनणादौ 5 / 3 / 126 / शौ अयमः 5 / 4 / 27 / श्वसुरः (उणादि), . 3 / 4 / शौनकादिभ्यः 3 / 3 / 72 / श्वसुरात् 2 / 4 / 71 / शौ वा 5 / 4 / 33 / श्वसः तुट् च 3 / 2 / 75 / श्न-सोः लोपः 5 / 3 / 104 / श्वसः वसीयसः 4 / 4 / 65 / श्वादयः (उणादि) 380 / श्नाः 1111100 / श्वादेरिति 6 / 1 / 16 / श्ना-द्विरुक्तयोः आतः 5 / 3 / 105 / / श्चिति-वृति-नीवी-छिदि-मुदि-दहि-तृपिश्नात् नः 5 / 3 / 22 / शुभिभ्यः च (उणादि) 3 / 8 / श्या-आद्-इण-व्यध-श्वस-तनः 1 / 1 / 147 / श्वि-ईदितः त-तवतो: 5 / 4 / 136 / . श्या-स्त्या-हृञ -अविभ्यः इनच् . (उणादि) 2 / 62 / षः पदे 6 / 4 / 12 / श्येत-एत-हरित-रोहितात् तो नः षट्-कति-कतिपयात् थट् 4 / 2 / 56 / 2 / 3 / 34 / ष-उनि क्तादेशः 6 / 3 / 31 / श्येन-तिलयोः पाते मे 5 / 2 / 84 / षपूर्व-हन्-धृतराज्ञाम् अणि 5 / 3 / 131 /