________________ 172] चान्द्रव्याकरणम् [रुहि --लग् रुहि-हृ-श्याभ्यः इतच् (उणादि) लस् तिप्-तस्-झि-सिप्-थस्-थ-मिप्-वस् 2 / 47 / मस्-ता-ताम्-झ-थस्-आथाम्-ध्वम्-इट्रूपात् आहत-प्रशस्ययोः यप् वहि-महिङ् 1 / 4 / 1 / 4 / 2 / 135 / लाक्षा-रोचनात् ठक् 3 / 1 / 2 / रूप्यान्तात् नः 3 / 2 / 18 / / लालाटिक-कौक्कुटिको 3 / 4 / 44 / / रेवत्यादिभ्यः ठक् 2 / 4 / 78 / लास-यतोः 5 / 2 / 57 / रैवतिकादिभ्यः छः 3 / 3 / 66 / लिङ: सीयुट 1 / 4 / 32 / रोः काम्ये 6 / 4 / 33 / लिङि तङि गमः 5 / 3 / 44 / रोः सुपि 6 / 4 / 23 / लिङि इणः 6 / 2 / 76 / रोग-आतपयोः वा 3 / 2 / 73 / लिङि च ऊर्ध्वमौहूतिके . 1 / 3 / 124 / रोगात् प्रतीकारे 4 / 3 / 2 / लिङि अतिपत्तौ लुङ 1 / 3 / 107 / रोपान्त-इतः प्राच्यात् 3 / 2 / 37 / / लिङि एत् 5 / 378 / / रोमन्थं वर्तयति हनुचाले 1 / 1 / 33 / लिङ-सिचोः तङि 5 / 4 / 105 / रो रि 6 / 4 / 16 / लिङ-सिचोः तङि 6 / 2 / 25 / लिट: इरच् 146 / लक्षण-वीप्सा-इत्थंभूतेषु अभिना लिट: क्वसुः 1 / 2 / 74 / 211154 / लिटि 5 / 1142 / लक्षणे 2 / 1 / 66 / लिटि इन्धि-श्रन्थ-ग्रन्थाम् 5 / 3 / 25 // लक्षणेन अभि-प्रती 2 / 2 / / लिटि अनादेशादेः एकहलमध्ये अतः लक्षेः मुट् च (उणादि) 186 / 5 / 3 / 116 / लघोः इक: अकवेः 4 / 1 / 147 / / लिटि अश्वेः द्विरुक्ते 5 / 1 / 21 / लघोः उपान्तस्य 6 / 2 / 4 / / लिट्-आशीलिङ-अतिशिति 5 / 3 / 61 / लङः द्विषश्च वा 1 / 4 / 43 / / लिट्-आशीलिङ-अतिङशिति 5 / 4 / 78 / लङ्गि-कम्प्योः उपताप-शरीरविकारयोः लिट्-योः 5 / 1 / 36 / / 5 / 3 / 34 / लिपः नेश्च 1 / 1 / 145 / लभः 5 / 4 / 18 / / लियः पूजा-अभिभवयोश्च 1 / 4 / 122 / ललाटात् तपः 1 / 2 / 22 / लियः स्नेहविलापने वा 6 / 1 / 46 / ललाटात् भूषणे कन् 3 / 3 / 34 / लियः वा 5 / 1 / 54 / लवणात् ठञ् 3 / 4 / 54 / लुकि अरि रः 6 / 3 / 100 / लवणात् लुक् 3 / 4 / 24 / लुक् स्त्रियाम् 2 / 4 / 59 / लष-पत-पद-स्था-भू-श-वृष-हन-कम-गमः लुग् अणादिलुकि अगोण्यादीनाम् उकञ् 1 / 2 / 102 / 2 / 2 / 87 /