________________ 146] चान्द्रव्याकरणम् [घा-- चायः घा हः 6 / 4 / 134 / चक्षेः उसिन् (उणादि) 364 / घुणे: डोरः ( उणादि ) 3 / 35 // चङि 5 / 1 / 24 / घुषेः अविशब्दने. 5 / 4 / 151 / चडि उपान्तस्य 6 / 1 / 61 / घृ-सि-दूभ्यः क्तः (उणादि) 2 / 51 / चङ-लिटोः. 5 / 1 / 2 / घ्र इत् 6 / 1 / 66 / च-जोः कुः घित्-ण्यतोः 6 / 1 / 83 / घ्रा-त्रा-अति-ही-नुद-उन्द-विदो वा चटकात् ऐरक् 2 / 4 / 5 / / 6 / 3 / 87 / चति-कटि-श-वृनः ट्वरच् (उणादि) घ्रा-धे-शा-च्छा-सो वा 1 / 1 / 63 / 3 / 15 / चतुरः 4 / 2 / 57 / ङमो हस्वात् द्वे 6 / 4 / 17 / चतुर्-अनडुहो: आम् 5 / 4 / 50 / ङसि-ङसोः 5 / 1 / 116 / चतुर-संगत-लवण-वड-बुध-कतर-सलसात् ङसेश्चात् 2 / 1 / 30 / / * वा 4 / 1 / 138 / डित् 1 / 1 / 11 / चतुर्थी प्रकृत्या 2 / 2 / 17 / डितः 1 / 4 / 48 / चतुष्पाद्भ्यः ढञ् 2 / 4 / 76 / डिति असख्युः 6 / 2 / 50 / चत्वारिंशदादौ वा 5 / 2 / 54 / डित् अनाशिषि 1 / 4 / 34 / चन्द्रात् माङो डित् (उणादि) 3 / 68 / ङि-स्योर्वा 5 / 3 / 132 / चमि-तनि-बधिभ्यः ऊः (उणादि) .: स्मिन् 2 / 1 / 7 / - 1143 / 3-ङस्योः य-आतौ 2 / 1 / 5 / : आम् तत्र 6 / 2 / 56 / चयः शरि द्वितीयः 6 / 4 / 158 / डे-सुटः अम् 2 / 1 / 27 / चर् 6 / 2 / 114 / चरः 1 / 1 / 110 / ङणोः कुक्-टुको शरि 6 / 4 / 12 / चरणात् वुञ् 3 / 3 / 64 / ङयः ईत् 4 / 4 / 145 / चरति 3 / 4 / 7 / / ङयादीनाम् 2 / 2 / 86 / चर-फलो: 6 / 2 / 136 / ङयापो दीर्घात् 5 / 1 / 67 / चराचर-चलाचल-पतापत-वदावद-घनाघनड्यापोः त्वनाम्नोः बहुलम् 5 / 2 / 73 / वा 5 / 1 / 10 / डी-आप्-ति-ऊङः 2 / 4 / 50 / / चरे: ट: 1 / 2 / 4 / ड्याम् 5 / 3 / 150 / चर्मणि अञ् 4 / 1 / 18 / डी-ऊङः 6 / 2 / 46 / चलन-आहारार्थात् 1 / 4 / 136 / डी-ऊङ-ऋतः अभ्रवः 4 / 4 / 141 // चातुर्मास्यं यज्ञे 3 / 3 / 22 / चक्रि-सस्रि-जज्ञयः 1 / 2 / 115 / / चातुर्मास्यात् यलोपश्च 4 / 1 / 111 // चक्षः ख्यान 5 / 4 / 81 / चायः कीः 5 / 1 / 27 /