________________ 142] चान्द्रव्याकरणम् [कूल- क्तात् कूल-अभ्र-करीषाच्च कषः 1 / 2 / 26 / क-ग्रोः उच् च (उणादि) 1 / 15 / कृकण-पर्णात् भारद्वाजात् 3 / 2 / 57 / क-त-कृपेः कीटन् (उणादि) 2 / 34 / कृकाद् वचः कश्च (उणादि) 1 / 4 / क-तभ्याम् ईषन् (उणादि) 3 / 56 / कृच्छ्र-गहनयोः कषः 5 / 4 / 150 / कृ धान्ये 1 / 3 / 21 / कृञः करणे ख्युन् 1 / 2 / 47 / क-प-जि-मण्डि-निधाञः क्युः (उणादि) कृत्रः कर्तरि 1 / 3 / 6 / / 270 / कृञः पासप् (उणादि) 3 / 66 / कभ्यः पञ्चभ्यः 5 / 4 / 172 / कृआदिभ्यः वुन् (उणादि) 2 / 20 / क-वृजो अण्डन् (उणादि) 2 / 37 / कृञा द्वितीय-तृतीय-शम्ब-बीजात्क -श-गर्देः अभच् (उणादि) 2 / 63 / कृषौ 4 / 4 / 42 / क-श-शौटिभ्यः ईरच् (उणादि) 3 / 27 / कृत्रा वा 2 / 2 / 34 / / केकय-मित्रयु-प्रलयानां यादेः ईयः कृत्रि वा 6 / 4 / 43 / . . . 6 / 1 / 13 / कृतो ये च 5 / 3 / 102 / के अणो ह स्वः 6 / 2170 / कृञः असुट: 5 / 4 / 156 / / केदारात् यब च 3 / 1 / 46 / कृत्री हेतु-शील-अनुलोमेषु 1 / 2 / 7 / / केवल-मामक-भागधेय-पाप-अवर-समानकृति-भिदि-लतेः क्तिकन् / आर्य-कृत-सुमङ्गल-भेषजात् नाम्नि (उणादि) 2 / 13 / कृतेः सुक् च (उणादि) 276 / केशादिभ्यो वः 4 / 2 / 113 / / कृ-दा-धा-रा-अचिभ्यः कः केशाद् वा 3 / 1151 / (उणादि) 213 / को: कद् अचि उत्तरार्थे 5 / 2 / 116 / कृपो रो ल: अकृपणादीनाम् 6 / 3 / 41 / कोपस्थाने अनाप्ये 2 / 1 / 76 / कृ-भू-तनेः कित् (उणादि) 2 / 16 / कोपान्ताद् अण् 3 / 2 / 47 / कृ-वा-पा-जि-मि-स्वदि-साधि-अशूभ्यः कोश्च आदेश-सनादि-शासि-वसि-घसां सः उण् (उणादि) 1 / 1 / 6 / 4 / 46 / कृ-वृ-त-यमि-दारि-अर्जेः उनन् (उणादि) कौपिञ्जल-हास्तिपदाद् अण् 3 / 3 / 67 / 280 / कौमारी प्राथम्ये 3 / 1 / 11 / कृ-वृ-त-स्वपि-सि-द्रुभ्यः नन् (उणादि) कौरव्य-आसुरि-माण्डुकात् 2 / 3 / 21 / 2074 / क्ङिति 5 / 3 / 38 / कृ-वृ-षि-मृजि-शंसि-दुहि-गुहः 1 / 1 / 125 / डिति 6 / 2 / 11 / कृ-व्रज-यजः 1 / 3 / 80 / / क्तवतुः 1 / 2 / 66 / कृषः अचश्चाद् वा (उणादि) 2 / 7 / क्तात् अनात्यन्तिके 4 / 4 / 16 / कृष्यादिभ्यो वलच् 4 / 2 / 116 / क्तात् अल्पोक्तौ 2 / 3 / 56 / 2 / 3 / 27 //