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________________ [ 10 ] गीता में केवल इन्हीं को सर्वसाध्य समझनेवाले 'वेदवादरत' लोगों को कड़े शब्दों में आलोचना की गई है और ब्रह्म-ज्ञानी के लिए इन वेदों (क्रिया आदि के प्रतीक ऋक् आदि) को निरर्थक कहा गया है: यावानथं उवपाने सर्वतः संप्लुतोदके / तावान्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः / / पूर्वपाणिनीयम् का रहस्य अतः स्पष्ट है कि जिस शब्दानुशासन को पूर्वपाणिनीयम् की संज्ञा दी गई है उसी का रूपांतर इन्द्र द्वारा वाक् की व्याकृति किये जाने की कथा में है और उसी को वेद-विभाजन अथवा व्याकरण भी कहा जा सकता है। इसका सारांश है-पव्यक्त प्रात्मा की प्राकृता वाक् का व्याकृता होना, नित्य और एक शब्द का अनित्य वर्णों और पदों की एकादशी-अनेकता में विभक्त होना / ऐतरेय उपनिषद्' में इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार व्यक्त किया गया है:____ कोऽयमात्मेति वयमुपास्महे, कतरः स आत्मा ? येन वा पश्यति, येन वा शृणोति, येन वा गंधानाजिघ्रति, येन वा वाच्यं व्याकरोति, येन वा स्वादु चाऽस्वादु च विजानाति, यदेतद् हृदयं मनश्चैतत् संज्ञानम् , आज्ञान, विज्ञानं, प्रज्ञानं, मेघा, दृष्टिः, धृतिः, मतिः, मनीषा, जूतिः, स्मृतिः, संकल्पः, ऋतुः, असुः, कामः, वशः इति सर्वाणि एतानि प्रज्ञानस्य नामधेयानि भवन्ति / एष ब्रह्म एष इन्द्र एष प्रजापतिः इस उद्धरण से स्पष्ट है कि प्रज्ञानस्वरूप प्रात्मा ही पांचों ज्ञानेन्द्रियों, हृदय, मन तथा वाक् द्वारा अपने 'वाच्य' को 'व्याकृत' करने वाला ब्रह्म, इन्द्र अथवा प्रजापति कहलाता है और संभवत: ऋक्तंत्रोक्त' ब्राह्म, ऐन्द्र तथा प्राजापत्य ध्याकरण इसी वाक् या प्रज्ञान व्याकृति की ओर संकेत करते हैं / ब्राह्मणों और उपनिषदों में बृहस्पति' की व्युत्पत्ति करते हुये भी उसे वाक् का पति तथा 1. ऐ० उ० 2, 2 / 2. ब्राह्मशानमैन्द्र च प्राजापत्यं बृहस्पतिम् / वाष्ट्रमापिशलं चेति पाणिनीयमथाष्टमम् // . .. वाग्वं त्वष्टा वाग्घीदं सर्व त्वाष्टीव (ऐ ब्रा० 2, 4); त० क० इन्द्रो वै त्वष्टा (ऐ० ब्रा० 6, 10, ऋ. 1, 12, 6)
SR No.004292
Book TitleChandravyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1889
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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