SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ 11 ] ब्रह्म' बताया जाता है और त्वष्टा' को तो स्वयं वाक् या इंद्र ही कहा जाता है। ऐसी स्थिति में ऋक्तंत्रोक्त आठ व्याकरणों में से बार्हस्पत्य एवं त्वाष्ट्र व्याकरण का तात्पर्य भी उक्त 'वाक्-व्याकृति' ही प्रतीत होता है / जैसा कि उक्त उद्धरण से प्रकट है, यह सारी वाक्-व्याकृति अक्षरों या वर्णों की उत्पत्ति से आगे नहीं बढ़ती, क्योंकि यही 'प्रज्ञान' की अभिव्यक्ति है; इसके आगे वर्णों से पदों (पदानि वर्णेभ्यः) की सृष्टि हो जाती है, जो प्रज्ञान की परिधि से बाहर स्थूल ध्वनि के क्षेत्र की घटना है / अपिलि का 'प्रक्षरतंत्र' और ईशान या महेश्वर के प्रसिद्ध माहेश्वरसूत्र भी अक्षरों या वर्णों को व्याकृति की ओर ही संकेत करते प्रतीत होते हैं; अतः ऋक्तन्त्र के अपिशलि एवं ऐशान व्याकरण भी उक्त उसी प्रज्ञान अथवा वाक् की व्याकृति के क्षेत्र में आते हैं, जिसका संबन्ध ब्रह्म, इन्द्र, बृहस्पति तथा प्रजापति से बतलाया गया है। इस प्रकार. . ऋक्तंत्रोक्त पाठ व्याकरणों में से सात केवल उक्त उसी वाक-व्याकृति के आध्यात्मिक तथ्यों को सूचित करते हैं, जिसे 'पूर्वपाणिनीयम्' में शब्दानुशासन कहा गया है / अब केवल पाठवाँ व्याकरण जिसे ऋतंत्र - में 'पाणिनीयं' कहा गया अवशिष्ट रहता है: ब्राह्म शानमैन्द्रं च प्राजापत्यं बृहस्पतिम् / स्वाष्ट्रमापिशलं चेति पाणिनीयमथाष्टमम् / / पाणिनीयम् का पाणिनीयत्व इस अष्टम व्याकरण को पूर्वपाणिनीयम् से बाहर मानने का कारण संभवतः यह है कि पूर्वपाणिनीयम् के अन्तर्गत केवल वर्ण-पर्यन्त वाक्-व्याकृति मानी जाती थी और वर्णों से उद्भ त पदों और वाक्यों की मीमांसा. को पाणिनीय ध्याकरण माना जाता था। इसका संकेत पूर्वपाणिनीयम् के अन्तिम दो सूत्रों में स्पष्ट है, जब कि 'पदानि वर्णेभ्यः' कहते ही तुरंत 'ते प्राक्' कह कर वर्णो को पूर्वपाणिनीय नित्यक्षेत्र का स्वीकार कर 'पदानि' को उस क्षेत्र से बाहर 1. वाग्वै बृहती बृहत्यै पतिस्तस्माद् बृहस्पतिः (श० बा० 14, 4, 1, 23, ज० उ० 2. ब्रह्म वै बृहस्पतिः ऐ० ब्रा० 1, 13, 1, 16; 2, 38; 4, 11; को० ब्रा० 7, 10; 12,8; 18, 2; श० ब्रा० 3, 1, 4, 15, 3, 6, 1, 11 इत्यादि / 3. पू० पा० 23 / 4. वही 24 /
SR No.004292
Book TitleChandravyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1889
Total Pages270
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy