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________________ वाले जीव विद्यमान रहते हैं, देह रहित जीवों की अवस्थिति सदा रहने के कारण भी इसे 'विदेह क्षेत्र' कहते हैं तथा एक पल्योपम की आयुष्य वाले परम ऋद्धिसम्पन्न 'महाविदेह' नामक देव का निवास होने से भी यह 'महाविदेह' के नाम से पुकारा जाता है। कर्मभूमि का यह सर्वोत्कृष्ट क्षेत्र है। इस क्षेत्र में सदाकाल कम से कम चार तीर्थंकर भगवान की उपस्थिति तो रहती ही है। उत्कृष्ट कभी-कभी 32 विजयों में 32 तीर्थंकरों का विचरण भी एक समय में ही होता है। भरतक्षेत्र में जब भगवान अजितनाथ विचरण कर रहे थे, तब इस महाविदेह क्षेत्र में 32 तीर्थंकर भगवान सदेह विचरण कर रहे थे। उसी समय धातकीखंड के दो और अर्द्धपुष्कर द्वीप के दो-इन चार महाविदेहों में भी 32-32 तीर्थंकर विचरण कर रहे थे। उस समय कुल मिलाकर 32 x 5 = 160 तीर्थंकर महाविदेह में तथा पाँच भरत क्षेत्र में और पाँच ऐरावत क्षेत्र में इस प्रकार 160 + 10 = 170 तीर्थंकर विचरण कर रहे थे। महाविदेह के मनुष्य छह प्रकार के संहनन और छह संस्थान से युक्त होते हैं। इनका आयुष्य कम से कम अन्तमुहूर्त से लेकर अधिक से अधिक एक करोड़ पूर्व का होता है। आयुष्य पूर्ण होने के पश्चात् अपने-अपने कर्मानुसार ये चारों गतियों में जन्म लेते हैं। कई आत्माएँ सभी कर्मों का क्षय कर सिद्धगति प्राप्त करती हैं। महाविदेह क्षेत्र का विस्तार-महाविदेह क्षेत्र पूर्व-पश्चिम में लम्बा और उत्तर-दक्षिण में चौड़ा है। इसका एक किनारा पूर्वी लवण समुद्र का स्पर्श करता है तो दूसरा किनारा पश्चिमी लवण समुद्र को छूता है। मेरु पर्वत के पूर्व में 45,000 योजन और पश्चिम में 45,000 योजन तथा मध्य में 10,000 योजन का मेरु पर्वत-इस प्रकार पूर्व से पश्चिम तक महाविदेह क्षेत्र की लम्बाई एक लाख योजन है। चौड़ाई में यह दक्षिण निषध पर्वत का और उत्तर की ओर नीलवंत पर्वत का स्पर्श करता है। मेरु पर्वत के उत्तर में महाविदेह क्षेत्र का विस्तार 11,842" योजन और दक्षिण में 11,842 तथा मध्य में मेरु पर्वत का 10,000 योजन, इस प्रकार महाविदेह क्षेत्र उत्तर से दक्षिण तक 33,684 योजन 4 कलां चौड़ा है। इसकी बाहा पूर्व-पश्चिम 33,767 योजन 7 कलां लम्बी है। उसके बीचोबीच उसकी जीवा पूर्व से पश्चिम तक लवण समुद्र का स्पर्श करती है, वह एक लाख योजन लम्बी है। इसका धनुपृष्ठ उत्तर-दक्षिण दोनों ओर परिधि की दृष्टि से कुछ अधिक 1,58,113 योजन 16 कला है। इसका आकार पल्यंक के समान लम्ब चौरस है। महाविदेह क्षेत्र में एक मेरूपर्वत, 32 विजय, 16 वक्षस्कार पर्वत, सीतोदा-सीता महानदी, 12 अंतरनदियाँ, चित्र-विचित्र, यमक-समक पर्वत, कंचनगिरि पर्वत, गजदन्त पर्वत, देवकुरू-उत्तरकुरू क्षेत्र, जम्बू एवं शाल्मली वृक्ष आदि अनेक पदार्थ हैं। उनका सविस्तार वर्णन आगे किया जा रहा है। (चित्र क्रमांक 46) महाविदेह के चार विभाग-महाविदेह क्षेत्र के मध्य में 'मेरू' नाम का, 1,00,000 योजन ऊँचाई वाला पर्वत हैं। इस पर्वत के दक्षिण दिशा में निषध पर्वत से हाथी के दांत सदृश दो गजदन्त पर्वत निकल कर मेरू पर्वत की तलहटी की ओर आते हैं। ठीक वैसे ही उत्तर दिशा के नीलवंत पर्वत से भी दो गजदन्त पर्वत निकल कर मेरूपर्वत के पास आते हैं। इससे यह महाविदेह दो भागों में विभाजित हो जाता है-(1) पूर्व महाविदेह और (2) पश्चिम महाविदेह। गजदन्त पर्वत के बीच का प्रदेश दक्षिण की ओर देवकुरू तथा उत्तर की ओर उत्तरकुरू क्षेत्र कहलाता है ये दोनों युगलिक क्षेत्र हैं। निषध पर्वत पर स्थित तिगिंच्छि द्रह से सीतोदा नामक महानदी निकलकर देवकुरू क्षेत्र सचित्र जैन गणितानुयोग NA AAAAA 65
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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