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________________ अध्याय 1 : लोक वर्णन नमिऊण असुर-सुर-गरूल-भुयंग-परिवदिए।। गय किलेसे अरिहे सिद्धायरिए उवज्झाए सव्वसाहूणं॥ __ (चंद्रप्रज्ञप्तिसूत्र, गाथा-2) असुर-सुर-गरूड़ और नागकुमारों से वंदित, क्लेश रहित अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और सर्व साधुओं को नमस्कार करके गणितानुयोग प्रारम्भ किया जा रहा है। जैन गणितानुयोग चारों गतियों का दर्पण सदृश है। इसमें लोक, अलोक, देवलोक, सूर्य, चन्द्र आदि ग्रह-नक्षत्र, भरत, ऐरावत, महाविदेह आदि कर्मभूमि तथा देवकुरू, उत्तरकुरू आदि अकर्मभूमि क्षेत्र, जम्बूद्वीप आदि द्वीप, लवण समुद्र आदि समुद्र, वैताढ्य व सुदर्शन मेरू आदि पर्वत, मनुष्यलोक, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल, समय, पल्योपम, सागरोपम आदि काल, सात नरक, भवनपति-वाणव्यंतर देव आदि गणितीय विषयों का समावेश है / एक प्रकार से यह अनुयोग जैन भूगोल-खगोल के सम्यक् ज्ञान का सागर है। लोक अधिकार लोक और अलोक-लोक शब्द 'लुक्' धातु से निष्पन्न है, जिसका अर्थ है-देखना। 'लोक्यते-अवलोक्यते इति लोकः' अर्थात् जो-जो स्थान और उसमें रहे हुए जो-जो द्रव्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी भगवान के द्वारा अवलोकित है, वह स्थान लोक है। उत्तराध्ययन सूत्र (28/7) में लोक को इस प्रकार परिभाषित किया है धम्मो अहम्मो आगासं कालो पुग्गल जंतवो। एस लोगोत्ति पन्नत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं॥ अर्थात् आकाश के जितने भाग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, जीव और पुद्गल विद्यमान है, वह 'लोक' है। इसके विपरीत जहाँ उक्त पाँच द्रव्य नहीं है, शुद्ध आकाश ही आकाश है, वह 'अलोक' है। आकाश लोक-अलोक दोनों में ही है, अत: आकाश का ही एक भाग 'लोकाकाश' व दूसरा भाग 'अलोकाकाश' -लोक कहा जाता है। (चित्र क्रमांक 1 : सामने के पृष्ठपर देखें।) अलोक में लोक की स्थिति-अलोक पोले गोले के आकार का अनन्तानन्त, अखण्ड, अमूर्तिक और चारों ओर केवल आकाशमय (पोलार) है। इस अनन्तानन्त अलोकाकाश के बहुमध्य भाग में लोक उसी प्रकार स्थित है जैसे विशाल स्थान के अनन्त अलोकाकाश के मध्य लोक मध्य में एक छींका लटका हो। (चित्र क्रमांक 2) चित्र क्र.2 सचित्र जैन गणितानुयोग अलोक ज
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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