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________________ क्रम 2. वसु जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति (सूत्र 188-192) के अनुसार नक्षत्रों के देवता व गोत्र क्रम नक्षत्र देवता गोत्र नक्षत्र देवता गोत्र अभिजित् / ब्रह्मा / मोद्गलायन | 15. पुष्य 5. पुष्य वृहस्पति / अवमज्जायन श्रवण विष्णु सांख्यायन | 16. अश्लेषा सर्प माण्डव्यायन धनिष्ठा अग्रभाव | 17.| मघा पितृ पिंगायन शतभिषक् वरुण कण्णिलायन | 18.| पूर्वाफाल्गुनी भग गोवल्लायन पूर्वभाद्रपदा / अज जातुकर्ण | 19. उत्तराफाल्गुनी अर्यमा काश्यप उत्तरभाद्रपदा अभिवृद्धि धनंजय 20. हस्त सविता कौशिक रेवती पूषा पुष्यायन 21. चित्रा त्वष्टा दार्भायन अश्विनी अश्व अश्वायन 22. स्वाति वायु चामरच्छायन भरणी यम भार्गवेश 23. विशाखा इन्द्राग्नि शुंगायन कृत्तिका अग्नि अग्निवेश्य अनुराधा मित्र गोलव्यायन 11. रोहिणी प्रजापति गौतम | 25. ज्येष्ठा इन्द्र चिकित्सायन 12. मृगशिर सोम भारद्वाज | 26. मूल नैर्ऋत कात्यायन आर्द्रा लोहित्यायन आप वाभ्रव्यायन 14. पुनर्वस अदिति वासिष्ठ 28. उत्तराषाढा विश्वदेव / व्याघ्रापत्य 35 24. ग्रह ज्योतिष्क व उनके देव नक्षत्र माला से 4 योजन ऊपर अर्थात् समभूतला पृथ्वी से 888 योजन (888 x 3,200 = 28,41,600 | मील) ऊपर ग्रह के विमान हैं। ये विमान दो कोस लम्बे-चौड़े, एक कोस ऊँचे पंचवर्णीय हैं। इसमें उत्पन्न होने वाले देवों के शरीर की ऊँचाई सात हाथ की तथा आयुष्य जघन्य पाव पल्योपम उत्कृष्ट एक पल्योपम का है। | इनकी देवियों की जघन्य पाव पल्योपम उत्कृष्ट आधे पल्योपम की आयु है। चन्द्र-सूर्य के मण्डल के समान ग्रहों के मंडल नहीं होते। ग्रह 88 हैं। ये मेरु पर्वत के चारों ओर अनियमित रीति से गति करते हैं। कभी ये दूर चले जाते हैं, कभी निकट आ जाते हैं, कभी थोड़े पीछे की ओर गति कर पुनः आगे गति करने लगते हैं। अतः शास्त्रों में इनकी नियमित गति नहीं मिलती, तथापि, राहु, केतु, मंगल आदि ग्रह थोड़ी नियमित गति वाले होने से उनका गणित मिलता है। 1. समभूतला पृथ्वी से 888 योजन ऊपर सर्वप्रथम हरितरत्नमय बुध ग्रह है। बुध से 3 योजन की ऊँचाई | ऊपर स्फटिक रत्नमय शुक्र ग्रह है। शुक्र से 3 योजन ऊपर पीतरत्नमय गुरु ग्रह हैं गुरु से 3 योजन ऊपर रक्तमय मंगल ग्रह है। मंगल से 3 योजन ऊपर जाम्बूनदमय शनि ग्रह है। इनके अतिरिक्त शेष सभी ग्रह भी उक्त 888 से 900 कुल 12 योजन की दूरी में समाविष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार समभूतला पृथ्वीसे 790 योजन की दूरी से प्रारम्भ होकर 900 योजन तक अर्थात् 110 योजन के भीतर ये सभी ज्योतिषी विमान आ जाते हैं। 900 योजन ऊपर मध्यलोक की सीमा है। उस सीमा रेखा की समाप्ति शनि सचित्र जैन गणितानुयोग 129 1295
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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