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________________ चित्रों का अनुसरण कर विषय को सुबोध बनाने का प्रयत्न किया गया है, कहीं उनका नवीनीकरण एवं कहीं शास्त्रोक्त रीति से सुधार भी किया है। कुछ आकृतियाँ-रुचकद्वीप, अढ़ाई द्वीप के बाहर सूर्य-चन्द्र की संख्या, घनाकार लोक की आकृतियाँ आदि नई भी निर्मित की हैं। आभार प्रदर्शन-लगभग चार वर्ष पूर्व हस्तिनापुर के शांत एकान्त वातावरण में अनुयोग प्रवर्तक पूज्य श्री कन्हैयालाल जी महाराज 'कमल' के अनुयोग ग्रंथों को देखकर सारपूर्ण, सरल, संक्षिप्त भाषा में लेखनी चलाने का विचार मन-मस्तिष्क में उभरा, तब जैन चरणानुयोग' एवं 'जैन धर्मकथानुयोग' नाम से दो पुस्तकें प्रकाश में आईं। उक्त दोनों पुस्तकों का विमोचन जैनधर्म एवं दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान् माननीय डॉ.सागरमल जी जैन (निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर) के कर-कमलों से सम्पन्न हुआ। उन्होंने उक्त ग्रंथद्वय की उपयोगिता की मुक्त कंठ से सराहना की और शेष दो अनुयोगों पर भी कार्य करने की प्रेरणा दी। उस समय गणितानुयोग जैसे क्लिष्ट विषय पर लिखना अत्यन्त कठिन कार्य प्रतीत हो रहा था। जैसा कि कवि कालिदास ने रघुवंश प्रारम्भ करने से पूर्व लिखा है क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः। तितीर्घदुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्॥ अपनी अल्प मति को देखते हुए मुझे यह प्रयास लघु नौका से समुद्र को पार करने जैसा प्रतीत हुआ। किन्तु मेरे एक मास शाजापुर प्रवास के समय माननीय डॉ. साहब ने जब तत्सम्बन्धित 15-20 ग्रंथ मुझे प्रदान किये तो दुष्कर लगने वाला कार्य भी सरलता से गतिशील होता गया। कल्याण मन्दिर स्तोत्र की वे दो पंक्तियाँ बरबस स्मरण हो आईं यद्वा दुतिस्तरति यज्जलमेष नूनमन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः। अर्थात् मशक को समुद्र में तिराने का श्रेय जैसे उसके अन्दर रही हुई हवा को जाता है, उसी प्रकार इस दुष्कर कार्य की सिद्धि का श्रेय भी उन ग्रंथकारों को जाता है, जो आकाशदीप की भाँति मेरा पथ प्रशस्त करते रहे। ___ इनके साथ ही मेरी बाल लेखनी को प्रौढ़ता प्रदान कराने वाले परम श्रद्धेय आचार्यसम्राट श्री देवेन्द्र मुनि जी म. सा. तथा मेरी अनवरत अन्त:प्रेरिका पूज्या गुरुवर्या श्री केसरदेवी जी म. सा. एवं शांतमूर्ति पूज्या श्री कौशल्यादेवी जी महाराज के प्रति भी मैं सदैव श्रद्धानत हूँ, जिनके आशीर्वाद की छाया में विघ्न रूपी ताप का सहज शमन हो जाता है। परम पूज्य आचार्यसम्राट् श्री शिवमुनि जी म. सा. की मैं सदैव ऋणि हूँ, जो विशाल धर्मशासन के अधिशास्ता होते हुए भी मेरी प्रत्येक कृति में अपना अनमोल मंगल संदेश भेजकर मुझे अनुगृहित एवं उत्साहित करते हैं मेरी सहवर्तिनी साध्वी तरुलताश्री जी भी सर्वात्मना समर्पित रहकर सहयोग प्रदान करती हैं, उन्हें मैं अन्त:करण से आशीर्वाद देती हूँ। (xi)
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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