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________________ महाविदेह ध्रुव तारा उत्तर उत्तर ध्रुव तारा पश्चिम महाविदेह उत्तर तारा देवों की ऋद्धि-ज्योतिषी देवों में तारामंडल के सभी विमान IP be * समभूतला पृथ्वी से 790 योजन पर ही नहीं, वरन् चन्द्र-सूर्य विमान की समश्रेणी में भी हैं और कई तारा विमान चन्द्र-सूर्य विमान से ऊपर के क्षेत्र में भी हैं। इनमें कितने ही तारा देवों की ऋद्धि अल्प है और कितने ही समऋद्धि सम्पन्न भी हैं। / यद्यपि सभी ज्योतिषी | देवों के इन्द्र, चन्द्र और सूर्य | है। उनका स्वामित्व सभी ग्रह, नक्षत्र, तारा विमानों पर रहता है, ध्रुव तारा | तथापि पूर्वभव में उपार्जित तप, नियम, भरत क्षेत्र चित्र क्र.68 ब्रह्मचर्य आदि के परिणामस्वरूप ताराओं की ऋद्धि में समानता भी हो सकती है। जैसे मनुष्य लोग में पूर्व संचित पुण्य के कारण कई श्रेष्ठी राजा नहीं होने पर भी राजा के समान ऋद्धि वाले होते हैं, उसी प्रकार देवों की भी इन्द्र के समान ऋद्धि हो सकती है। किन्तु ऐसे तारादेव अत्यल्प होते हैं। प्राय: तो निम्नतर या निम्नतम ऋद्धि वाले ही होते हैं। ध्रुवतारा-कोटाकोटी तारामंडल के मध्य यह एक विशिष्ट तारा है, जो जगत के तथाविध स्वभाव से सदा ही स्थिर है। इसके समीप में रहने वाले तारा मंडल मेरू की प्रदक्षिणा नहीं करते, ध्रुव तारे की प्रदक्षिणा करते हुए वहीं के वहीं घूमते हैं। यह ध्रुव तारा भरतक्षेत्र की अपेक्षा से उत्तर दिशा में है। ऐसे ध्रुव तारे चार हैं वे भी ऐरवत क्षेत्र, पूर्व महाविदेह और पश्चिम महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से अनुक्रम से उत्तर दिशा में है। (चित्र क्रमांक 68) “सर्वेषामेव वर्षाणां मेरूरूत्तरतः स्थितः' अर्थात् जैसे मेरूपर्वत प्रत्येक क्षेत्र की अपेक्षा से उत्तर दिशा में है उसी प्रकार ध्रुव तारा भी उत्तर में स्थित है। उत्तर में होने के कारण यह 'ध्रुवतारा' दिशासूचक यंत्र द्वारा समुद्र में चलते जहाज, स्टीमर, हवाईजहाज आदि को दिशा का ज्ञान कराने में अत्यंत उपयोगी होता है। क्योंकि उसका काँटा सदा उत्तर ध्रुव की ओर रहता है। सचित्र जैन गणितानुयोग AAAAAAA 107
SR No.004290
Book TitleJain Ganitanuyog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayshree Sadhvi
PublisherVijayshree Sadhvi
Publication Year2014
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size38 MB
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