________________ स्थान, (2) तमस्काय-अंधकार का समूह रूप क्षेत्र, (3) अंधकार-तमोरूप क्षेत्र, (4) महाअंधकार-महातम रूप क्षेत्र, (5-6) लोकांधकार, लोकतमिस्र-लोक में सबसे अधिक अंधकार का क्षेत्र, (7-8) देवांधकार, देवतमिस्र-देवों को भी महांधकार रूप प्रतीत होने वाला, (9) देवारण्य-शक्ति सम्पन्न देव भी जहाँ जाने से डरें, (10) देवव्यूह-देवों द्वारा भी दुर्भेद्य, (11) देवपरिध-गहरी खाई के समान गति का प्रतिरोधक, (12) देव प्रतिक्षोभ-देवों को क्षुभित करने वाला, (13) अरूणोदक समुद्र-अरूणोदक समुद्र का विकार। इस लोक के सभी जीव भूतकाल में तमस्काय के रूप में उत्पन्न हो चुके हैं। (चित्र क्रमांक 64-65) ज्योतिषी देव 'अत्यंत प्रकाशित्वाज्ज्योतिः' जिन देवों के विमान सदा प्रकाशित रहते हैं तथा ति लोक को द्योतित-प्रकाशित करते हैं वे 'ज्योतिष्क विमान' कहलाते हैं। ऐसे प्रकाश युक्त विमानों में रहने वाले देव ज्योतिष्क देव है। अथवा जो अपने-अपने मुकुटों में रहे हुए चन्द्रसूर्यादि के चिह्नों से प्रकाशमान हैं, वे ज्योतिष्क देव हैं / ज्योतिषी देव पाँच प्रकार के हैं-(1) चन्द्र,(2) सूर्य,(3) ग्रह,(4) नक्षत्र,(5) तारा। इनमें चन्द्र और सूर्य इन्द्र रूप है। इन दोनों के परिवार रूप 28 नक्षत्र, 88 ग्रह और 66,975 कोटाकोटि तारे हैं। ति लोक में असंख्य चन्द्र और सूर्य हैं। उन सबका ग्रह आदि परिवार समान है। ____ आकाश मंडल में जो सूर्य-चंद्र आदि ज्योतिष चक्र दिखाई देते हैं, वे देवों के विमान अर्थात् निवास स्थान हैं। सूर्य-चन्द्र देव एवं उनका देव-देवी परिवार इन विमानों में रहता है। ये विमान शाश्वत हैं तथा पृथ्वीकायिक हैं। अढ़ाई द्वीप में ये सब ज्योतिष्क विमान सदाकाल अपने गतिक्षेत्र पर स्वभावतः परिभ्रमण करते हैं। देवों को जब अन्यत्र जाना हो तो वे विक्रिया द्वारा नया विमान बनाकर जाते हैं। जम्बूद्वीप में परस्पर विरोधी दिशा में 2 चन्द्र और 2 सूर्य हैं लवण समुद्र में 4 चन्द्र, 4 सूर्य हैं। धातकी खण्ड में 12 चन्द्र, 12 सूर्य है। कालोदधि समुद्र में 42 चन्द्र, 42 सूर्य और अर्द्ध पुष्कर द्वीप में 72 चन्द्र और 72 सूर्य हैं। ये सभी चन्द्र, सूर्य एक पंक्ति में समश्रेणी में होते हैं। अढ़ाई द्वीप के बाहर ये परिभ्रमण नहीं करते, अर्थात् ये स्थिर हैं। सभी ज्योतिषी विमानों का आकार वैसा ही है, जैसे एक संतरे के दो खंड करके उन्हें ऊर्ध्वमुखी रखा जाए तो चौड़ाई वाला भाग ऊपर और गोलाई वाला थोड़ा सा भाग नीचे रहता है। हमें यहाँ से मात्र नीचे का भाग दिखाई देता है, ऊपर का नहीं, अतः ये अर्धकपित्थ के आकार वाले कहे गये हैं। किंतु अढ़ाई द्वीप से बाहर वाले ज्योतिष विमान आयत (पकी हुई ईंट) के आकार वाले हैं। समभूतला पृथ्वी से ज्योतिष्क चक्र का अंतर-जम्बूद्वीप के मेरु पर्वत के मध्य भाग में अर्थात् मेरु पर्वत की जो 10,000 योजन की चौड़ाई है, उसके मध्यभाग में रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे दो क्षुल्लक प्रतर हैं। यहीं तिर्यक्लोक का मध्य भाग है। वहाँ आठ रुचक प्रदेश हैं, जहाँ से दिशा-विदिशाओं का प्रारम्भ होता है, यही स्थान समभूतला पृथ्वी कहलाती है। इस समपृथ्वी से 790 योजन की ऊँचाई से लेकर 900 योजन के बीच ग्रह, नक्षत्र और तारों के मंडल हैं। अर्थात् ये 110 योजन के बीच कहीं भी हो सकते हैं। समपृथ्वी से 800 योजन पर सूर्यमंडल और 880 योजन पर चन्द्रमंडल है। कितने ही ग्रंथों में ग्रह, नक्षत्र, तारा मंडल का समपृथ्वी से अंतर निम्न प्रकार से बताया है सचित्र जैन गणितानुयोग - 103