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________________ मैं अपने पाठकों को उसी क्रम से उन आश्चर्यों से परिचित कराऊंगा जिस क्रम से मेरा उनसे परिचय हुआ है। केवल असाधारण संवेदनशीलता वाले कृत्रिम अंगों (यंत्रों) द्वारा ही अदृश्यों के इस प्रदेश में अनुसन्धान किया जा सकता है। सजातीय दृश्य पदार्थों को विभाजित करने वाली सीमा इसमें लुप्त होती देखी जा सकेगी और. वनस्पति तथा प्राणिवर्ग एक ही जीवन-सागर के बहुरूपी एकक दिखाई पड़ेंगे / सत्य के इस दर्शन में वस्तुओं का अन्तिम रहस्य किसी भी रूप में घटेगा नहीं, वरन् गहनतम होता जायगा। यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि आनी इन्द्रियों की सीमितता तथा अपरिष्कृतता से सब ओर से घिरा रहने पर भी मानव अपरिचित सागरों में साहसिक यात्राओं के लिए एक विचार-तरी का निर्माण कर सका। अपनी इस अन्वेषण-यात्रा में उसे कभी-कभी उस अकल्पित की एक झलक मिल जाती है जो अब तक उसके लिए अदृश्य रहा था, यह दृश्य उसकी सब आत्मनिर्भरता को, उस सारे व्यवधान को जो उसे विश्व के आर-पार धकड़ते हुए महान् स्पन्दन से अनभिज्ञ रखे हुए था, नष्ट कर देता है। जो आनन्द मेरे जीवन में उठा है, मैं आने पाठकों को भी उसका अनुभव : कराना चाहता हूँ। जगदीशचन्द्र वसु बोस संस्थान कलकत्ता, 1626
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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