________________ अध्याय 27 तंत्रिका-आवेग और संवेदना का नियंत्रण हम किस प्रकार बाह्य संसार के संपर्क में आते हैं और कैसे बाह्य आघात का अनुभव भीतर होता है, यह बहुत ही रहस्यमय है। हमारी इन्द्रियां उन प्रतन्तुओं की तरह हैं, जो विभिन्न दिशाओं में विकीर्ण रहते हैं और बहुत प्रकार के संवादों को चुनते रहते हैं। इन सबका विश्लेषण करने पर पाया जाता है कि इनमें भिन्न तंत्रिका-वाहिनियों में आघात के प्रभाव का पारेषण होता है। ये आघात यांत्रिक चोट से अथवा वायु या ईथरीय तरंगों द्वारा दिये जाते हैं और हमें उनसे स्पर्श, ध्वनि और प्रकाश का बोध होता है। इन संवादों में एक गुप्त शक्ति होती है, जो हमारे शरीर में ऐसी संवेदना प्रेरित करती है जो या तो लाभप्रद होती है या हानिकर। संवेदना का गुण प्रायः टक्कर से होने वाली उद्दीपना की तीव्रता पर निर्भर रहता है। यह तो भली-भांति ज्ञात है कि यदि धीरे से स्पर्श किया जाय, या प्रकाश, ऊष्मा और ध्वनि की मन्द उद्दीपना दी जाय, तो उससे जो संवेदना होती है उसे रुचिकर कहा जायगा और यदि इसी प्रकार की तीव्र उद्दीपना दी जाय तो वह अरुचिकर होगी और दुःखदायी भी। ... प्रतिबोधी अंग तक जो उद्दीपना की तीव्रता पहुँचती है, वह दो कारकों पर निर्भर है--बाह्य उद्दीपना का बल और आवेग के संवाही वहन की अवस्था / स्वाभाविक दशा में अत्यधिक मन्द उद्दीपना एक ऐसा आवेग उत्पन्न करती है जो इतनी शक्तिहीन होती है कि प्रतिबोधन नहीं कर सकती / मध्यम उद्दीपना द्वारा जो अनु. क्रियात्मक संवेदना होती है वह अरुचिकर नहीं होती, दूसरी ओर यदि उद्दीपना अत्यधिक तीव्र हो तो प्रतिक्रिया अत्यधिक कष्टदायी होती है। . इस प्रकार हमारी संवेदना केन्द्रीय अंग तक जाने वाले तंत्रिका-आवेग की तीव्रता द्वारा अभिरंजित होती है। हम एक ओर अपनी इन्द्रियों के अपूर्ण होने और दूसरी ओर अपनी अति-संवेद्यता के कारण मानवीय परिसीमाओं के अधीन हैं। ऐसी घटनाएं होती हैं जो हमें ज्ञात नहीं हो पातीं, क्योंकि उद्दीपना इतनी मन्द होती है कि हमारी इन्द्रियों को जगा नहीं सकती और बाह्य आघात इतना तीव्र हो सकता