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________________ 186 वनस्पतियों के स्वलेख पर संवाद मिलना आरम्भ होता है; और एक निश्चित गहराई पर विद्युत-बाधा अत्यधिक स्पष्ट हो जाती है / हम बाधा की इस गहराई का माप लेते हैं / शलाका जब और अधिक गहराई में जाती है, विद्युत्-सूचना लुप्त हो जाती है ; शलाका अब संवाही ऊतक को पार कर एक असंवाही ऊतक तक पहुँच गयी तब और भी गहराई में एक बिन्दु पर संवाद फिर मिलते हैं। इसके आगे किसी भी आवेग का संकेत नहीं मिलता / इस प्रकार संवाही ऊतक को एक इंच के सौवें भाग तक के स्थान में सीमित कर सकते हैं। इन प्रेक्षणों द्वारा पता चलता है कि उत्तेजना का संवहन एक निश्चित ऊतक में सीमित है, अतः उसे तंनि का कह सकते हैं। . यह ज्ञात करने के लिए कि किन स्थानों से संदेश प्राप्त हुए, हमपर्णवन्त के एक भागको उस रेखा परकाटते है जहाँ शलाका धंसायी गयी थी। बाह्य त्वचा असंदेशवाही थी, वल्क (Cortex) भी स्पष्टतः एक असन्देशवाहक लपेटन था किन्तु अधोवाही (Phloem) में शलाका पहुंचने पर सबल संदेश प्राप्त हुए। जैसे ही यह दारु (Xylem) में पहुंची, संदेश लुप्त हो गये, किन्तु दूसरी सतह पर पहुंचते ही फिर आरम्भ हो गये। दूसरा वाहक ऊतक द्वितीय आन्तरिक अधोवाही (Internal Phloem) है जो अभी तक वनस्पति-दैहिक वैज्ञानिकों ने सोचा भी नहीं था। इस प्रकार हमने एक नहीं, दो वाहक तंत्रिकाओं का पता लगाया (चित्र 112) / इन दोहरी वाहक तंत्रिकाओं--एक बाहरी और एक आन्तरिक--की सार्थकता आगे समझायी जायगी। प्रभावी अभिरंजन द्वारा तंत्रिका के विस्तार का चित्रण यदि हम एक ऐसे अभिरंजक (Stain) का पता लगाय जो पहले से ही निर्धारित तंत्रिका-आवेग के वाहक तन्तुगुच्छों का अभिरंजन कर सके तब हम पौधे में तंत्रिका-विभाजन को स्पष्ट समझ पायेंगे। इस प्रकार दो भिन्न कार्य करने वाले ऊतकों की दो प्रतिवेशी प्रणालियों का विभेद करना अथवा दो अलग-अलग पड़ी हुई किन्तु समान कार्य करने वाली ऊतियों का साम्य स्थापित करना सम्भव होगा। शोणद्रुवि (Haematoxylin) और कुंकुम (Saffranin) के प्रयोग से चेता ऊतक गहरे नील-लोहित रंग का हो गया और अन्य ऊतकों से पृथक् दिखाई पड़ने लगा / इस परीक्षा से विद्युत्-शलाका द्वारा सूचित परिणामों की पुष्टि हुई; बाह्य और आन्तरिक अधोवाही समान अभिरंजित हुए / इससे यह पता चलता है कि यथार्थ में वे दो पृथक् तंत्रिकाएँ हैं / पर्णवृन्त में ऐसे चार दोहरे तन्तुगुच्छ होते हैं। प्रत्येक युग्म अनुपर्ण-वृन्त से आरम्भ होता है और पीनाधार में समाप्त होता है।
SR No.004289
Book TitleVanaspatiyo ke Swalekh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Vasu, Ramdev Mishr
PublisherHindi Samiti
Publication Year1974
Total Pages236
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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