________________ प्रणोदक ऊतक 141 है कि विपरीत या अनभ्यस्त दिशा में जाने वाली गति अत्यधिक मन्द है। रक्तप्रवाह में अग्र-संचालन को कपाटों द्वारा सहायता मिलती है। ये कपाट प्रवाह के एक ओर जाने में सहायक होते हैं, विपरीत दिशा में नहीं। पौधे में कोशीय उदञ्चों (पम्प) के भाग बहुत कुछ इसी प्रकार से स्वाभाविक ऊपरी दिशा में प्रवाह के लिए कार्य करते हैं। स्वाभाविक अवस्था में मूल कोशिकाएं मृदा-घर्षण की उद्दीपना द्वारा उत्तेजित होती हैं। संभवतः क्रमसंकोची तरंगों का यही कारण है। सींचने पर निम्न भाग की बढ़ी हुई आशूनता भी रस-संचालन को अधिक सक्रिय स्थान से ऊपर कम सक्रिय स्थान की ओर भेजती है। काष्ठ का कार्य शाकीय पौधों में मृदा-जल से पर्णों की दूरी अधिक नहीं होती, किन्तु लम्बे . वृक्षों में निकटतर प्रदाय-स्रोत की आवश्यकता होती है, जैसे जल से भरी हुई वाहक नली 'मृदा-विस्तार' के रूप में। ये वाहिनी नलियाँ तरुण काष्ठ-वाहिनियाँ हैं, जो पर्ण के सक्रिय उत्स्वेदन की आपातिक स्थिति में जल की यांत्रिक गति के काम में आती हैं / जब उत्स्वेदन मन्द होता है, छिलके के सहारे स्वाभाविक उत्कर्ष वृक्ष के प्रत्येक अंग को जल पहुँचाता है, पर्ण आशून हो जाते हैं और काष्ठ-वाहिनियाँ रस से पूर्ण। किन्तु सक्रिय उत्स्वेदना में शारीरिक संचालन आवश्यकता को पूरी करने में असमर्थ होता है और जल काष्ठ-संचिति से लिया जाता है / इस प्रकार दो कारक क्रियाशील होते हैं--सक्रिय वल्क-कोशिकाओं द्वारा और उनके सहारे शारीरिक प्रेरण (Propulsion) और काष्ठ या दारु (Xylem) के साथ-साथ दैहिक स्थानान्तरण / . . अब हम रस-उत्कर्ष से सम्बन्धित सब आवश्यक क्रिया-विधियों (Processes) का निरूपण करें। प्रचषण-रत मूल कोशिकाओं को मृदा के यांत्रिक घर्षण द्वारा सतत उद्दीपना मिलती है। इसके द्वारा आन्तरिक वल्क के सक्रिय प्रेरक स्तर के किनारे स्पन्दन की क्रमसंकोची तरंगें होती हैं। इस प्रवाह की दिशा विभेदी आशूनता द्वारा स्थिर होती है। यह निम्न भाग से ऊपरी भाग की ओर अधिक आशून होती है, जबकि ऊपरी भाग पर्णों के द्रुत उत्स्वेदन द्वारा प्रारम्भिक शुष्कता की दशा में रहता है। सक्रिय कोशिकाओं का लयबद्ध संकुचन रस को केवल ऊपर ही नहीं भेजता बल्कि तरुण दारु में भी पार्श्वतः भेजता है। यह दारु आवश्यकता के समय संचयागार का कार्य करता है, और जब उत्स्वेदन सर्वाधिक सक्रिय होता है तब जल यहीं से जाता है।