________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 85 विश्ववेदीश्वरः सर्वजगत्कर्तृत्वसिद्धितः / इति संश्रयतस्तत्राविनाभावस्य संशयात् // 63 // सति ह्यशेषवेदित्वे संदिग्धा विश्वकर्तृता / तदभावे च तन्नायं गमको न्यायवेदिनाम् // 64 // नित्योर्थो निर्मूर्त्तत्वादिति स्यादेकदेशतः। स्थितस्तयोर्विनिर्दिष्टपरोऽपीदृक्तदा तु कः॥६५॥ यत्रार्थे साधयेदेकं धर्मं हेतुर्विवक्षितम् / तत्रान्यस्तद्विरुद्धं चेद्विरुद्ध्या व्यभिचार्यसौ॥६६॥ इति केचित्तदप्राप्तमनेकान्तस्य युक्तितः। सम्यग्घेतुत्वनिर्णीतेर्नित्यानित्यत्वहेतुवत् // 67 // सर्वथैकान्तवादे तु हेत्वाभासोऽयमिष्यते / सर्वगत्वे परस्मिंश्च जाते: ख्यापितहेतुवत् // 68 // ईश्वर सर्वज्ञ है, सम्पूर्ण जगत् के कर्तापन की सिद्धि होने से। इस प्रकार अनुमान का आश्रय करने वाले हेतु में अविनाभाव का संशय हो जाने से यह हेतु संदिग्ध हेत्वाभास है। क्योंकि सर्वज्ञत्व विश्वकर्तापन ईश्वर में संदिग्ध है। अत: नैयायिकों का यह हेतु अपने साध्य का ज्ञापक नहीं है। विपक्ष में सम्पूर्ण रूप से हेतु का नहीं वर्तना संदिग्ध हैं।।६३-६४ // ___ शब्द नित्य है, अमूर्त होने से। यह हेतु एकदेश से विपक्ष में रहने के कारण निश्चित व्यभिचारी है। इसी प्रकार उन एकदेश निर्णीत और एकदेश संदिग्ध में से दूसरा एकदेश संदिग्ध कोई हेतु विशेषरूप से कह दिया गया है। जैसे कि गुण अनित्य है, अमूर्त होने से; यहाँ विपक्ष के एकदेश में हेतु की वृत्तिता संदिग्ध है॥६५॥ जिस अर्थ में एक हेतु तो विवक्षा से धर्म का साधक होता है और दूसरा हेतु वहाँ ही उस साध्य से विरुद्ध अर्थ को कहता है तो वह हेतु विरुद्धानैकान्त हेत्वाभास है। इस प्रकार कोई कह रहे हैं। उनका यह कहना अप्रसिद्ध (युक्ति रहित) है। क्योंकि समीचीन युक्तियों से नित्य और अनित्य को साधने वाले हेतुओं के समान उन अनेक धर्मों को साधने वाले हेतुओं का भी समीचीन हेतु के द्वारा निर्णय होता है। सभी प्रकारों से एक ही धर्म का आग्रह करके एकान्तवाद स्वीकार कर लेने पर तो यह अविद्यमान विरोधी धर्म को साधने वाला हेतु, हेत्वाभास माना गया है। जैसे मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानवान है, चेतनागुण के मिथ्या उपयोगरूप परिणाम सहित होने से तथा मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञानरहित है, मोक्ष उपयोगी तत्त्वज्ञान नहीं होने से। यहाँ स्याद्वादसिद्धांत अनुसार दोनों हेतु समीचीन हैं। एकान्तवादियों के मत में दूसरा हेतु समीचीन नहीं है // 66 // सत्तास्वरूप जाति अथवा द्रव्यत्व, गुणत्व, घटत्व आदि अपर जाति का सर्वव्यापकपना अथवा अपर यानी अव्यापकपना साध्य करने पर प्रसिद्ध करा दिये गये हेतुओं के समान उस हेतु को किन्हीं वैशेषिकों ने अपने यहाँ सत्प्रतिपक्ष कहा है। . सामान्य व्यापक है, सर्वत्र व्यक्तियों में अन्वित होने से, जैसे आकाश / इस अनुमान के द्वारा जाति को व्यापक सिद्ध किया जाता है। तथा सामान्य अव्यापक है, क्योंकि अन्तराल में दृष्टिगोचर नहीं होने वाला प्रति व्यक्ति में पृथक् -पृथक् है जैसे कि घट व्यक्ति। यहाँ वैशेषिकों ने दूसरा हेतु सत्प्रतिपक्ष माना है, फिर अन्य दार्शनिकों ने उसको अनैकान्तिक ही कहा है। अतः स्याद्वादियों के यहाँ भी वह अनैकान्तिक ही है।