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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 70 स चाहार्यो विनिर्दिष्टः सहजश्च विपर्ययः। प्राच्यस्तत्र श्रुताज्ञानं मिथ्यासमयसाधितम् // 9 // मत्यज्ञानं विभङ्गश्च सहजः संप्रतीयते। परोपदेशनिर्मुक्तेः श्रुताज्ञानं च किंचन // 10 // . चक्षुरादिमतिपूर्वकं श्रुताज्ञानमपरोपदेशत्वात्सहजं मत्यज्ञानविभङ्गज्ञानवत् / श्रोत्रमतिपूर्वकं तु परोपदेशापेक्षत्वादाहार्यं प्रत्येयं / तत्र सति विषये श्रुताज्ञानमाहार्यविपर्ययमादर्शयति सति स्वरूपतोऽशेषे शून्यवादो विपर्ययः। ग्राह्यग्राहकभावादौ संविदद्वैतवर्णनम् // 11 // चित्राद्वैतप्रवादश्च पुंशब्दाद्वैतवर्णनम् / बाह्यर्थेषु च भिन्नेषु विज्ञानांडप्रकल्पनं // 12 // वह विपर्यय ज्ञान आहार्य और सहज दोनों प्रकार का विशेष रूप से कथन किया गया है। उन दोनों में पहिला आहार्य विपर्ययज्ञान मिथ्याशास्त्रों द्वारा साध्य होता है; कुश्रुतज्ञान स्वरूप है। तथा कुमतिज्ञान और विभंगज्ञान तो सहज विपर्यय है, ऐसी प्रतीति होती है। हाँ, परोपदेशक अभाव कुश्रुतज्ञान भी सहज विपर्यय हो जाता है। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगम से जन्य दो प्रकार का माना है, उसी प्रकार विपर्यय ज्ञान भी दो प्रकार का है। आहार्य नाम का भेद तो परोपदेशजन्य कुश्रुतज्ञान में ही घटित होता है, और सहजविपर्यय नाम का भेद मति, श्रुत, अवधि इन तीनों ज्ञानों में सम्भव होता है।९-१०॥ . चक्षु आदि, यानी नेत्र, स्पर्शन, रसना, घ्राण इन चार इन्द्रियों से जन्य मतिज्ञान को पूर्ववर्तीकारण मानकर उत्पन्न कुश्रुतज्ञान तो परोपदेशपूर्वक नहीं होने के कारण सहजविपर्यय है, जैसे कि कुमतिज्ञान और विभंग ज्ञान सहज मिथ्याज्ञान हैं। किन्तु श्रोत्र इन्द्रियजन्य मति - ज्ञान को पूर्ववर्तीकारण मानकर उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान को परोपदेश की अपेक्षा हो जाने से आहार्य्य विपर्ययज्ञान समझ लेना चाहिए। विपर्ययज्ञानों में विषय के विद्यमान होने पर उत्पन्न कुश्रुतज्ञानस्वरूप आहार्य्य विपर्यय को ग्रन्थकार दिखलाते हैं - __ अपने-अपने स्वरूप से सद्भूत पदार्थों के विद्यमान रहने पर अथवा स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों से पदार्थों के विद्यमान होने पर शून्यवादी विद्वान् द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का निषेध कर देना, शून्यवाद नाम का विपर्यय है। क्योंकि पदार्थों के विद्यमान होने पर भी उनका निषेध कर रहा है। तथा ज्ञेय पदार्थ और ज्ञापक ज्ञान पदार्थ, इनमें ग्राह्यग्राहकभाव होते हुए या आश्रय-आश्रयीभूत पदार्थों में आधार आधेय भाव होते हुए अथवा अनेक पदार्थों में कार्यकारणभाव आदि सम्बन्ध होने पर भी ज्ञान को अद्वैत ही कहते जाना यह विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों का विपर्यय है। क्योंकि ग्राह्यग्राहकभाव आदि द्वैत पदार्थों के होते हुए भी उनका निषेध कर दिया गया है। तथा, नाना प्रकार बहिरंग पदार्थों के विद्यमान होने पर भी चित्र आकार वाले ज्ञान के अद्वैत मानना चित्राद्वैत प्रवाद नाम का विपर्यय है। इसी प्रकार द्वैत के होने पर भी ब्रह्मवादियों द्वारा ब्रह्माद्वैत का वर्णन करना अथवा वैयाकरणों द्वारा शब्दाद्वैत स्वीकार करना भी आहार्य (गृहीत) कुश्रुतज्ञान है। तथा भिन्न-भिन्न स्थूल, कालान्तर स्थायी, बहिरंग अवयवी पदार्थों के होते हुए भी क्षणिक, अवयव, अणुस्वरूप, विज्ञान के अंशों की कल्पना करना विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों का विपर्यय है। ये सब सत् पदार्थ में असत् की कल्पना से होते हैं। सम्पूर्ण चराचर जगत् को ब्रह्माण्ड या विज्ञानाण्ड में तदात्मक रखना उचित नहीं है॥११-१२॥
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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