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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 69 मत्यादयोऽत्र वर्तन्ते ते विपर्यय इत्यपि। हेतोर्यथोदितादत्र साध्यते सदसत्त्वयोः॥६॥ तेनैतदुक्तं भवति मिथ्यादृष्टेर्मतिश्रुतावधयो विपर्यय: सदसतोरविशेषेण यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तस्यैवेति। समानेऽप्यर्थपरिच्छेदे कस्यचिद्विपर्ययसिद्धिं दृष्टान्ते साध्यसाधनयोर्व्याप्तिं प्रदर्शयन्नाह स्वर्णे स्वर्णमिति ज्ञानमस्वर्णे स्वर्णमित्यपि / स्वर्णे वास्वर्णमित्येवमुन्मत्तस्य कदाचन // 7 // विपर्ययो यथा लोके तद्यदृच्छोपलब्धितः। विशेषाभावतस्तद्वन्मिथ्यादृष्टघटादिषु // 8 // सर्वत्राहार्य एव विपर्ययः सहज एवेत्येकान्तव्यवच्छेदेन तदुभयं स्वीकुर्वन्नाह यहाँ सूत्र का अर्थ करने पर पूर्वसूत्र में कहे गये वे मति आदि तीन ज्ञान अनुवर्तन कर लिये जाते हैं, और वे विपर्यय हैं' - यह भी अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। अत: यथायोग्य कहे गये 'सत् और असत् की अविशेषता से यदृच्छा उपलब्धि' - इस हेतु द्वारा यहाँ मति आदि में सत् और असत्रूप विपर्यय सिद्ध किया जाता है। प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ठीक बन जाने से पूर्वसूत्र में कहे गये साध्य की सिद्धि हो जाती है॥६॥ इस संदर्भ में कथित वाक्यों द्वारा सिद्ध होता है कि मद से उन्मत्त पुरुष के समान सत् और असत् की विशेषता रहित चाहे जैसी उपलब्धि हो जाने से मिथ्यादृष्टि के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान विपर्यय हैं। इस प्रकार अनुमान वाक्य बना लिया गया है। ____ सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों के उत्पन्न हुई अर्थ परिच्छित्ति के समान होने पर भी दोनों में से किसी एक मिथ्यादृष्टि के ही विपर्यय ज्ञान की सिद्धि है। किन्तु सम्यग्दृष्टि का ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं है। इस तत्त्व की सिद्धि को दृष्टांत में साध्य और साधन की व्याप्ति का प्रदर्शन कराते हुए श्री विद्यानन्द आचाय विशदरूप से कहते हैं - उन्मत्त पुरुष को कभी-कभी स्वर्ण पदार्थ में स्वर्ण है' - इस प्रकार ज्ञान हो जाता है और कभी स्वर्ण रहित मिट्टी, पीतल आदि में यह सोना है, ऐसा भी ज्ञान हो जाता है अथवा कभी स्वर्ण में लोहा आदि स्वर्णरूप ज्ञान हो जाता है। जिस प्रकार लोक में यदृच्छा उपलब्धि हो जाने से विपर्ययज्ञान होना प्रसिद्ध है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव के घट, पट आदि पदार्थों में विशेषता रहित करके यदृच्छा उपलब्धि से मिथ्याज्ञान हो जाना प्रसिद्ध है॥७-८॥ .. सभी स्थलों पर आहार्य ही विपर्ययज्ञान होता है, ऐसा कोई एकान्तवादी कहता है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधा उपस्थित हो जाने पर भी भक्तिवश या आग्रहवश विपरीत समझते रहना आहार्य्य मिथ्याज्ञान है, जैसे कि गृहीत मिथ्यादृष्टि जीव असत्य उपदेशों द्वारा विपरीत अभिनिवेश कर लेता है। तथा कोई एकान्तवादी कहता है कि सभी स्थलों पर सहज ही विपर्ययज्ञान होता है। उपदेश के बिना ही अंतरंग कारणों से मिथ्यावासनावश जो विपर्ययज्ञान अज्ञानी जीवों के होता है, वह सहज है। इस प्रकार एकान्तों का व्यवच्छेद करके उन दोनों प्रकार के विपर्यय ज्ञानों को स्वीकार करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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