________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 66 मिथ्यात्वोदयसद्भावे तद्विपर्ययरूपता / न युक्ताग्न्यादिसंपाते जात्यहम्नो यथेति चेत् // 17 // नाश्रयस्यान्यथाभावसम्यक्परिदृढे सति। परिणामे तदाधेयस्यान्यथा भावदर्शनात् // 18 // यथा सरजसालाम्बूफलस्य कटु किन्न तत् / क्षिप्तस्य पयसो दृष्टः कटुभावस्तथाविधः // 19 // तथात्मनोऽपि मिथ्यात्वपरिणामे सतीष्यते / मत्यादिसंविदां तादृङ्मिथ्यात्वं कस्यचित्सदा // 20 // जात्यहेम्नो माणिक्यस्य चाग्र्यादिर्वा गृहादिर्वा नाहेमत्वममाणिक्यत्वं वा कत्तुं समर्थस्तस्यापरिणामकत्वात्। मिथ्यात्वपरिणतस्तु आत्मा साश्रयीणि मत्यादिज्ञानानि विपर्ययरूपतामापादयति। तस्य तथा परिणामकत्वात्सरजसकटुकालाम्बूवत्स्वाश्रयि पय इति न मिथ्यात्वसहभावेऽपि मत्यादीनां सम्यक्त्वपरित्यागः शङ्कनीयः। परिणामित्वमात्मनोसिद्धमिति चेदत्रोच्यते शंका - आत्मा में मिथ्याकर्म के उदय का सद्भाव होने पर ज्ञानों को विपर्ययस्वरूप कहना उचित नहीं है क्योंकि जिस प्रकार अग्नि, कीच, धूलि आदि का सन्निकर्ष होने पर या अग्नि, पानी आदि में गिर जाने पर शुद्ध सोने का विपरीतपना नहीं होता है अर्थात् - अच्छे सोने को आग, पानी या कहीं भी डाल दिया जाए वह लोहा या मिट्टी, कीचड़ नहीं बन जाता है। समाधान - इस प्रकार शंका नहीं करना चाहिए क्योंकि आश्रय के अन्य प्रकार से परिवर्तनरूप परिणाम के भली प्रकार परिपुष्ट हो जाने पर उस आश्रय के आधेयभूत पदार्थ का अन्य प्रकार से परिणाम . होना देखा जाता है॥१७-१८॥ जैसे रजसहित कटु तुम्बी में रखा हुआ दूध क्या तुम्बी के कटु होने से कुटु भाव को प्राप्त नहीं होता है? अपितु अवश्य ही कटु भाव को प्राप्त हो जाता है। उसी प्रकार किसी आत्मा के भी मिथ्यात्व परिणाम हो जाने पर मति आदि ज्ञान मिथ्या हो जाते हैं ऐसा सदा इष्ट किया गया है॥१९-२०॥ किट्ठ, कालिमा आदि से रहित स्वच्छ सोने का अग्नि, कीचड़, वायु अथवा पानी आदि पदार्थ अस्वर्णपना करने के लिए समर्थ नहीं हैं। अथवा माणिक रत्न के अमाणिक्यपने को करने के लिए शूद्रगृह, वस्त्र आदि पदार्थ समर्थ नहीं हैं, क्योंकि उन अग्नि आदि या गृह आदि को स्वर्ण या माणिक्य के विपरिणाम कराने के निमित्त शक्तिप्राप्त नहीं है। किन्तु मिथ्यादर्शन परिणाम से युक्त आत्मा अपने आश्रय में स्थित मति, श्रुत आदि ज्ञानों को विपर्यय स्वरूपपने को प्राप्त करा देती है, क्योंकि उस मिथ्यादृष्टि आत्मा को तीन ज्ञानों की कुज्ञानरूप परिणति कराने में प्रेरक निमित्तपना प्राप्त है। जैसे सत्त्व कड़वी तुम्बी अपने आश्रयप्राप्त दूध को कड़वे रस सहित परिणति करा देती है। अत: मिथ्यादर्शन का सहभाव हो जाने पर मति आदि ज्ञानों के समीचीनपने का परित्याग हो जाना शंका करने योग्य नहीं है। अर्थात् मिथ्यादर्शन के कारण ज्ञान मिथ्या हो जाते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। " परिवर्तन करने वाले परिणामों से सहितपना आत्मा के असिद्ध है। इस प्रकार किसी प्रतिवादी के कहने पर विद्यानन्द आचार्य कहते हैं -