________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 65 यदा मत्यादयः पुंसस्तदा न स्याद्विपर्ययः। स यदा ते तदा न स्युरित्येतेन निराकृतम् // 15 // विशेषापेक्षया ह्येषां न विपर्ययरूपता। मत्यज्ञानादिसंज्ञेषु तेषु तस्याः प्रसिद्धितः॥१६॥ सम्यक्त्वावस्थायामेव मतिश्रुतावधयो व्यपदिश्यन्ते मिथ्यात्वावस्थायां तेषां मत्यज्ञानव्यपदेशात् / ततो न विशेषरूपतया ते विपर्यय इति व्याख्यायते येन सहानवस्थालक्षणो विरोध: स्यात्। किं तर्हि सम्यग् मिथ्यामत्यादिव्यक्तिगतमत्यादिसामान्यापेक्षया ते विपर्यय इति निश्चीयते मिथ्यात्वेन सहभावाविरोधात्तथा मत्यादीनां / / ननु च तेषां तेन सहभावेऽपि कथं मिथ्यात्वमित्याशंक्योत्तरमाह जिस समय आत्माओं के मति, श्रुत, अवधि ज्ञान है (जो समीचीन सम्यक्दृष्टियों के ही पाये जाते हैं), उस समय कोई भी विपर्ययज्ञान नहीं होगा, और जिस समय आत्मा में वह विपर्ययज्ञान है, उस समय उन मति, श्रुत, अवधि ज्ञान में से कोई भी ज्ञान नहीं होंगे। इस प्रकार एकान्तवादियों के कथन का भी इस उक्त कथन से खण्डन कर दिया गया है, ऐसा समझना चाहिए। अर्थात् मिथ्या और समीचीन सभी भेदों में सामान्यरूप से रहने वाले मति, श्रुत और अवधि ज्ञान पाये जा सकते हैं // 15 // .. विशेष की उपेक्षा करके विचारा जाये तब मति, श्रुत, अवधिज्ञानों का विपर्ययस्वरूप नहीं है, क्योंकि मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान, विभंगज्ञान इस प्रकार की विशेष संज्ञा वाले उन ज्ञानों में उस विपर्यय स्वरूपता की प्रसिद्धि है। अर्थात् - जैसे एवंभूतनय से विचारने पर रोगी ही रोगी हुआ है। नीरोग पुरुष रोगी नहीं है। उसी के समान कुमतिज्ञान ही विपर्ययस्वरूप है। सम्यग्दृष्टि के मतिज्ञान विपरीत नहीं है। इस प्रकार सूत्र के अर्थ का सामान्य और विशेष रूप से व्याख्यान कर लेना चाहिए।१६।। . सम्यग्दर्शन गुण के प्रकट हो जाने पर सम्यक्त्व अवस्था में ज्ञान मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान कहे जाते हैं। मिथ्यात्व कर्म के उदय होने पर मिथ्यात्व अवस्था में उन ज्ञानों का कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान और विभंगज्ञानरूप से व्यवहार किया जाता है। अत: विशेष रूप से वे मति आदि ज्ञान विपर्ययस्वरूप हैं। इस प्रकार का व्याख्यान नहीं किया जाता है, जिससे कि शीत, उष्ण के समान “साथ नहीं ठहरना'' इस लक्षणवाला विरोध हो जाता है। अर्थात् - “मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च" - इस सूत्र में पड़े हुए मति, श्रुत, अवधि ये शब्द सम्यग्ज्ञानों में ही व्यवहत होते हैं। उन सम्यग्ज्ञानों का उद्देश्य कर विपर्ययपने का विधान करना विरुद्ध पड़ता है। अत: विशेषरूप से उन मति आदि ज्ञानों को नहीं लेना चाहिए। शंका - तो फिर किस प्रकार व्याख्यान करना? समाधान - समीचीन मतिज्ञान और मिथ्या मतिज्ञान, या समीचीन श्रुतज्ञान और मिथ्या श्रुतज्ञान आदि अनेक व्यक्तियों में प्राप्त मतिपन, श्रुतपन, आदि सामान्य की अपेक्षा करके ग्रहण किये गये वे ज्ञान विपर्यय स्वरूप हैं। इस प्रकार निश्चय किया जाता है। क्योंकि मति आदि का मिथ्यात्व के साथ सद्भाव पाये जाने पर कोई विरोध नहीं है। , उन मति आदि ज्ञानों को उस मिथ्यात्व के साथ सहभाव होने पर भी मिथ्यापन कैसे प्राप्त हो जाता है? इस प्रकार किसी की आशंका के उत्तर में आचार्य कहते हैं -