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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 55 मत्यादिज्ञानमिति व्याख्यानं क्रियते सूत्रबाधापरिहारस्यैवं प्रसिद्धेरिति चेत्, नैवमितिवचनात् सूत्रान्मत्यादिज्ञानमक्रमभाविप्रकाशनाद्विना लब्धुमशक्तेः। ननु बह्वादिसूत्रं मतिज्ञानयोगपद्यप्रतिपादकं तावदस्तीति शंकामुपदर्य प्रत्याचष्टेबह्वाद्यवग्रहादीनामुपदेशात्सहोद्भवः / ज्ञानानामिति चेन्नैवं सूत्रार्थानवबोधतः॥१२॥ बहुष्वर्थेषु तत्रैकोवग्रहादिरितीष्यते। तथा च न बहूनि स्युः सहज्ञानानि जातुचित् // 13 // कथमेवमिदं सूत्रमेकस्य ज्ञानस्यैकत्र सहभावं प्रकाशयन्न विरुद्ध्यते इति चेदुच्यते शंका - तुम कारिका का कैसा व्याख्यान करते हो? इसका उत्तर यह है कि स्याद्वादवाक्य और नय वाक्यों से संस्कार प्राप्त जो ज्ञान है वह श्रुतज्ञान तो क्रमभावी है क्योंकि शब्दों की योजना क्रम से ही होती है अत: शब्दसंयुक्त श्रुतज्ञान तो क्रमभावी है और 'च' शब्द से गृहीत अक्रम से होने वाले मति आदि ज्ञान भी प्रमाण हैं। इस प्रकार कारिका का व्याख्यान किया जाता है ऐसा अर्थ करने पर उमास्वामी महाराज के सूत्र से आने वाली बाधा के परिहार की प्रसिद्धि हो जाती है। इस प्रकार परवादियों के कहने पर आचार्य कहते हैं कि यह कथन युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि मति आदि ज्ञान अक्रम से (एक साथ भी) हो जाते हैं। इस तत्त्व को कहने वाले सूत्रवचन या कारिका वचन के बिना ही अर्थ प्राप्त नहीं हो सकता है। मति ज्ञानों के युगपत् होने का प्रतिपादन करने वाला “बहुबहुविधक्षिप्रा” इत्यादि सूत्र तो विद्यमान है ही। इस प्रकार की आशंका को दिखलाकर श्री विद्यानन्द आचार्य इस शंका का खण्डन करते हैं- बहु, बहुविध आदि पदार्थों के अवग्रह, ईहा आदि ज्ञानों के उपदेश से कई ज्ञानों का एक साथ उत्पन्न होना सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार कहने वाले को सूत्र के वास्तविक अर्थ का ज्ञान नहीं है। बहुत से अर्थों में या बहुत जाति के अनेक अर्थों में एक अवग्रह, एक ईहा ज्ञान, आदि होते हैं। इस प्रकार उस सूत्र का अर्थ अभीष्ट है। उस प्रकार ऐसा होने पर कदाचित् भी एक साथ बहुत ज्ञान नहीं हो सकते // 12-13 // एक समय में एक ही ज्ञान का सद्भाव मानने पर एक आत्मा में एक समय में अनेक ज्ञानों के साथसाथ होने का कथन करने वाला “एकादीनि भाज्यानि” इत्यादि सूत्र विरुद्ध क्यों नहीं होगा? अर्थात् एक समय में एक ही ज्ञान होता है, ऐसा मानने पर एक साथ चार ज्ञान हो सकते हैं यह सूत्र विरुद्ध पड़ेगा। इस प्रकार शंका करने पर आचार्य समाधान करते हैं - . . ज्ञान की लब्धिस्वरूप शक्तियों की विवक्षा करने से इस सूत्र द्वारा दो, तीन, चार ज्ञानों का सहभाव कथन कर देना विरुद्ध नहीं पड़ता है क्योंकि स्याद्वादसिद्धान्त की नीति को जानने वाले विद्वानों के यहाँ कथंचित् यानी किसी क्षयोपशम की अपेक्षा से कितने ही ज्ञानों का अक्रम से उत्पन्न होना विरुद्ध नहीं है। भावार्थ - जैसे सिद्धान्त, न्याय, व्याकरण, साहित्य को जानने वाला विद्वान् सोते समय, खाते, पीते, खेलते समय भी उक्त विषयों की व्युत्पत्ति सहित है, किन्तु पढ़ाते समय या व्याख्यान करते समय एक ही विषय के ज्ञान से उपयुक्त होते हैं।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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