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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *54 तथा च मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानं' 'तत्प्रमाणे' इति ज्ञानपंचकस्य प्रमाणद्वयरूपत्वप्रतिपादकसूत्रेण बाधनं प्रसज्येत / यदा तु मत्यादिज्ञानचतुष्टयं क्रमभावि केवलं च युगपत्सर्वभावि प्रमाणं स्याद्वादेन प्रमाणेन सकलादेशिना तयोश्च विकलादेशिभिः संस्कृतं सकलविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेणागतमिति व्याख्यायते तदा सूत्रबाधा परिहता भवत्येव / ननु परव्याख्यानेऽपि न सूत्रबाधा क्रमभावि चेति चशब्दान्मतिज्ञानस्यावधिमनः पर्यययोश्च संग्रहादित्यत्र दोषमाह चशब्दासंग्रहात्तस्य तद्विरोधो न चेत्कथम् / तस्य क्रमेण जन्मेति लभ्यते वचनाद्विना // 11 // क्रमभावि स्याद्वादनयसंस्कृतं चशब्दान्मत्यादिज्ञानं क्रमभावीति न व्याख्यायते यतस्तस्य क्रमभावित्वं वचनाद्विना न लभ्येत। किं तर्हि स्याद्वादनयसंस्कृतं / यत्तु श्रुतज्ञानं क्रमभावि चशब्दादक्रमभावि च किन्तु जब श्री समन्तभद्रस्वामी की कारिका का अर्थ इस प्रकार किया जायेगा कि 'क्रम-क्रम' से होने वाले मति, श्रुत आदि चारों ज्ञान और एक ही समय में सब पदार्थों को प्रकाशने वाला केवलज्ञान प्रमाण है। वस्त के सकल अंशों का कथन करने वाले स्याद्राद प्रमाण के द्वारा और वस्त के विकल अंशों का कथन करने वाले नयों के द्वारा वह तत्त्वज्ञान संस्कृत होता है। अथवा प्रमाण तो सकलादेशी वाक्य से संस्कृत है और द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक दो नय विकलादेशी वाक्यों के द्वारा संस्कार प्राप्त हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण विवादों के निराकरण से यह सिद्धान्त प्राप्त हो जाता है कि पाँचों ज्ञान और नय दोनों ही प्रमाण हैं। इस प्रकार कारिका . का व्याख्यान किया जायेगा, तब तो सूत्र से आयी हुई बाधा का परिहार हो ही जाता है। शंका - दूसरे विद्वान् के द्वारा व्याख्यान करने पर भी कारिका की सूत्र से बाधा नहीं आती है क्योंकि “क्रमभावि च" कारिका में पड़े हुए च शब्द के द्वारा मतिज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान का संग्रह हो जाता है। ऐसी दशा में श्री समन्तभद्रस्वामी की कारिका द्वारा भी पाँचों ज्ञानों को प्रमाणता प्राप्त हो जाती है। समाधान - इस शंका का निराकरण कर इसमें होने वाले दोष कहते हैं 'च' शब्द के द्वारा मति आदि ज्ञानों का संग्रह हो जाने से इस कारिका के वाक्य का उस सूत्र से विरोध क्यों नहीं होता है? उन मति आदि ज्ञानों की अक्रम से उत्पत्ति हो जाती है, यह तुम्हारा सिद्धान्त वचन के उच्चारण बिना कैसे प्राप्त हो सकता है? अर्थात् - 'च' शब्द से मति आदि का संग्रह तो हो जायेगा किन्तु ज्ञानों का एक साथ होना बिना कहे ही कारिका से कैसे निकल सकता है? श्री समन्तभद्र आचार्य ने क्रमभावि' शब्द तो कहा है किन्तु अक्रमभावि शब्द नहीं कहा है अतः तुम्हारा व्याख्यान ठीक नहीं है॥११॥ वादी कहता है कि हम क्रम से होने वाले तथा स्याद्वाद नय से संस्कृत श्रुतज्ञान और 'च' शब्द से संगृहीत क्रमपूर्वक होने वाले मति आदि ज्ञान प्रमाण हैं, ऐसा व्याख्यान नहीं करते हैं जिससे कि जैनों का क्षायोपशमिक ज्ञानों के क्रमभावीपन का मन्तव्य तो सिद्ध हो जाय और हम पर-वादियों द्वारा माना गया उन मति आदि ज्ञानों का अक्रम से होजानापन वचन के बिना प्राप्त नहीं हो सके।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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