________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 37 क्षेत्रद्रव्येषु भूयेषु यथा च विविधस्थितिः। स्पष्टा या परमा तद्वदस्य स्वार्थे यथोदिते // 6 // यथा चेन्द्रियजज्ञानं विषयेष्वतिशायनात् / स्वेषु प्रकर्षमापन्नं तद्विद्भिर्विनिवेदितम् // 7 // मतिपूर्वं श्रुतं यद्वदस्पष्टं सर्ववस्तुषु / स्थितं प्रकृष्यमाणत्वात्पर्यंतं प्राप्य तत्त्वतः // 8 // मनःपर्ययविज्ञान तथा प्रस्पष्टभासनं। विकलाध्यक्षपर्यन्तं तथा सम्यक्परीक्षितं // 9 // प्रकृष्यमाणता त्वक्षज्ञानादेः संप्रतीयते / इति नासिद्धता हेतोर्न चास्य व्यभिचारिता // 10 // साध्ये सत्येव सद्भावादन्यथानुपपत्तितः। स्वेष्टहेतुवदित्यस्तु ततः साध्यविनिश्चयः॥११॥ दृष्टेष्टबाधनं तस्यापह्नवे सर्ववादिनां / सर्वथैकान्तवादेषु तद्वादेऽपीति निर्णयः॥१२॥ जिस प्रकार मतिज्ञान की बहुत से क्षेत्र और द्रव्यों में नाना प्रकार की स्थिति स्पष्ट और उत्कृष्ट होती है, उसी प्रकार इस मन:पर्यय की विविध व्यवस्था पूर्व में यथायोग्य कहे गए अनन्तवें भागरूप स्वार्थ में परमप्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है॥६॥ जिस प्रकार इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ ज्ञान अपने नियत विषयों में अतिशय को उत्तरोत्तर अधिक प्राप्त करते हुए परमप्रकर्ष को प्राप्त होता है, उस इन्द्रिय ज्ञान को जानने वाले विद्वानों के द्वारा विशेष स्वरूप से कहा गया है, उसी प्रकार मन:पर्यय ज्ञान समझ लेना चाहिए॥७॥ - अपने विषयों में परम प्रकर्ष को प्राप्त होने से जिस प्रकार मतिज्ञानपूर्वक होने वाला श्रुतज्ञान सम्पूर्ण वस्तुओं को अविशदरूप से जानता हुआ अन्तिम सीमा को प्राप्त होकर यथार्थरूप से व्यवस्थित है, उसी प्रकार मन:पर्यय ज्ञान भी अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान स्वरूप विकल प्रत्यक्षों की सीमापर्यन्त अधिक स्पष्ट होकर व्यवस्थित है। इस प्रकार पूर्व प्रकरणों में इसकी समीचीन परीक्षा कर चुके हैं। क्षायोपशमिक ज्ञानों में विकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षों में मन:पर्ययज्ञान प्रकृष्ट है। इससे अधिक सूक्ष्म विषय को जानने वाला कोई भी क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं है।८-९॥ / इन्द्रियजंन्यज्ञान और श्रुतज्ञान आदि ज्ञानों की स्व के प्रकर्षपर्यन्त प्रकर्षता प्रतीत होती है अतः पक्ष में रहने से हेतु असिद्ध नहीं है तथा इस प्रकृष्यमाणत्व हेतु की विपक्ष में वृत्ति नहीं होने से व्यभिचारीपना भी नहीं है। प्रकर्षपर्यन्त गमनरूप साध्य के होने पर ही प्रकृष्यमाणत्व हेतु का सद्भाव अन्यथानुपपत्ति हो जाने से अपने इष्ट धूम आदि हेतुओं के समान यह हेतु निर्दोष है। उस निर्दोष हेतु से साध्य का विशेषरूप करके निश्चय हो ही जाता है कि प्रत्यक्ष ज्ञानों में सर्वोत्कृष्ट मन:पर्यय ज्ञान है॥१०-११॥ ... उन अभीष्ट ज्ञानों की प्रकर्षपर्यन्त प्राप्ति का अपलाप कर देने पर सम्पूर्णवादियों के प्रत्यक्ष प्रमाणों और इष्ट किये गए अनुमान आदि प्रमाणों के द्वारा बाधायें उपस्थित होती हैं अत: सर्वथा एकान्तवादों में और प्रसिद्ध अनेकान्तवाद में भी उक्त प्रकार से मनःपर्यय ज्ञान का निर्णय कर दिया गया है। अर्थात् ज्ञान के नियत विषयों की परीक्षा करने पर सभी विद्वानों के यहाँ प्रकृष्यमाणपन अविनाभावी हेतु से ज्ञानों का अपने विषयों में प्रकर्षगमन निर्णीत किया है।॥१२॥ * चार क्षायोपशमिक ज्ञानों के विषय का नियम कर अब क्रमप्राप्त केवलज्ञान के विषय का नियम करने के लिए श्री उमास्वामी आचार्य सूत्र कहते हैं -