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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 316 सर्वत्रोपलंभानुपलंभव्यवस्थित्यभावप्रसंगात्। ततोनुपलब्धेरपि समयानुपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमो दूषणाभास एवेति प्रतिपत्तव्यं॥ का पुनरनित्यसमा जातिरित्याहकृतकत्वादिना साम्यं घटेन यदि साधयेत् / शब्दस्यानित्यतां सर्वं वस्त्वनित्यं तदा न किम्।४२८। अनित्येन घटेनास्य साधर्म्यं गमयेत्स्वयं / सत्त्वेन साम्यमात्रस्य विशेषाप्रतिवेदनात् // 429 // इत्यनित्येन या नाम प्रत्यवस्था विधीयते। सात्रानित्यसमा जातिर्विज्ञेया न्यायबाधनात् / 430 / अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद्घटवदिति प्रयुक्ते साधने यदा कश्चित्प्रत्यवतिष्ठते यदि शब्दस्य घटेन साधर्म्यात् कृतकत्वादिना कृत्वा साधयेदनित्यत्वं तदा सर्वं वस्तु अनित्यं किं न गम्येत्? सत्त्वेन कृत्वा साधर्म्य, अनित्येन घटेन साधर्म्यमात्रस्य विशेषाप्रवेदादिति / तदेवमनित्यसमा जातिर्विज्ञेया न्यायेन बाध्यमानत्वात् / तदुक्तं / “साधर्म्यात्तुल्यधर्मोपपत्तेः सर्वानित्यत्वप्रसंगादनित्यसमा” इति॥ . अनुपलब्धि से उलाहना देकर आवरणों का अभाव सिद्ध करना अनुपलब्धिसमा दूषणाभास है, ऐसा समझना चाहिए। भावार्थ - मुझे यहाँ पर घट उपलब्ध नहीं हो रहा है। इस अनुपलब्धि का ज्ञान के द्वारा संवेदन हो रहा है। अत: उपलब्धि के समान अनुपलब्धि भी ज्ञान का विषय है। इसलिए अनुपलब्धि जाति का कथन करना दूषणाभास है। बाईसवीं अनित्यसमा जाति का लक्षण क्या है? ऐसा पूछने पर आचार्य कहते हैं - यदि कृतकत्व प्रयत्नजन्यत्व आदि हेतुओं के द्वारा घट के साथ शब्द की अनित्यता का साधर्म्य सिद्ध किया जाता है तो सर्व वस्तु अनित्य क्यों नहीं होंगी? क्योंकि अनित्य घट के साथ सत्त्व के द्वारा केवल साधर्म्य हो जाने से सर्व वस्तुओं का साधर्म्य समझा जायेगा। क्योंकि सभी वस्तु सत्त्व की अपेक्षा साधर्म्य है। साम्यमात्र की (सत्त्व मात्र की) अपेक्षा से विशेषता का वेदन नहीं होता है। अर्थात् सत्त्व सामान्य की अपेक्षा किसी भी पदार्थ में विशेषता नहीं है। जिससे इस प्रकार “अनित्येन समा' नामक प्रत्यवस्थान (उलाहना) दिया जाता है। ऐसा अनित्यसमा जाति का लक्षण कहने पर सिद्धान्ती कहते हैं कि यहाँ पर यह अनित्यसमा जाति न्याय ग्रन्थ से बाधित है। ऐसा जानना चाहिए। अर्थात् न्याय ग्रन्थों में वस्तु को सिद्ध करने के लिए अनित्यसमा जाति का प्रयोग करना प्रतिवादी का असत् उत्तर है॥४२८-४२९-४३० // “घट के समान कृतकत्व (किसी का किया हुआ होने) से शब्द अनित्य हैं।" इस प्रकार समीचीन हेतु का प्रयोग करने पर कोई प्रतिवादी शंका उठाता है कि यदि शब्द का घट के साथ कृतकत्व आदि के साथ साधर्म्य हो जाने से शब्द का अनित्यपना सिद्ध किया जायेगा तो साधर्म्य के द्वारा सभी वस्तुएँ अनित्य क्यों नहीं समझी जायेंगी? क्योंकि अनित्य घट के साथ सत्त्व द्वारा साधर्म्य को मुख्य करके केवल साधर्म्य सर्वत्र पाया जाता है। घट के सत्त्व में तथा अन्य वस्तुओं के सत्त्व में विशेषता का प्रतिभास नहीं हो रहा है। अत: सर्व वस्तुओं को अनित्य क्यों नहीं सिद्ध किया जाता है? सिद्धान्तवादी इसके प्रत्युत्तर में कहते
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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