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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 315 न विद्यमानस्य शब्दस्य प्रागुच्चारणानुपलब्धिरावरणाद्यनुपलब्धेरित्युपपत्तेर्यत्कस्यचित्प्रत्यवस्थानं तदावरणादीनामनु-पलब्धेरप्यनुपलंभात्। सैवावरणाद्यनुपलब्धिर्मा भूत् ततः शब्दस्य प्रागुच्चारणात् सत एवाश्रवणं तदावरणाद्यभावसिद्धेरभावादावरणादिसद्भावादिति संबंधरहितमेवानुपलब्धेः सर्वदा स्वयमेवानुपलभस्वभावत्वादुपलब्धिविषयत्वात् / यथैव ह्युपलब्धिर्विषयस्तथानुपलब्धिरपि। कथमन्यथास्ति मे घटोपलब्धिर्नास्ति मे घटोपलब्धिरिति संवेदनमुपपद्यते यतश्चैवमावरणाद्यनुपलब्धिरनुपलंभान्नैवाभावः सिद्ध्यति तदसिद्धौ च विपरीतस्यावरणादिसद्भावस्योपपत्तिश्च नास्पदं प्रतिपद्यते / यतश्च प्रागुच्चारणाच्छद्बस्यावरणादीनि सोहं नैवोपलभे, तदनुपलब्धिमुपलभे सर्वत्रेत्याबालमनाकुलं संवेदनमस्ति / तस्मादावरणादीनामदृष्टे न सिद्ध्यत्यभाव इत्ययमुपालंभो न प्रमाणान्वितः, ___ उच्चारण के पूर्व अविद्यमान शब्द की अनुपलब्धि है (अदर्शन) है। विद्यमान शब्द का अदर्शन नहीं है। क्योंकि आवरण आदि की अनुपलब्धि है। इस प्रकार उपपत्ति मानने वाले वादी के प्रति, जिस किसी भी प्रतिवादी की ओर से प्रत्यवस्थान उठाया जाता है कि उस शब्द के आवरण, अन्तराल आदिकों की अनुपलब्धि होने से अनुपलंभ है। इसलिए उस आवरण आदि की अनुपलब्धि नहीं हो सकती है। इसलिए उच्चारण के पूर्व विद्यमान शब्द का अश्रवण (सुनने का अभाव) उसके आवरण के कारण है। अर्थात् शब्द के ऊपर आवरण होने से शब्द के उच्चारण के पूर्व विद्यमान शब्द सुनाई नहीं देता है। इसलिए शब्द अनादि काल से प्रवाह रूप से सर्वदा सर्वत्र विद्यमान है। तथा उसके आवरण आदिकों के अभाव की सिद्धि का अभाव हो जाने से आवरणों के सद्भाव की सिद्धि हो जाती है। अब सिद्धान्ती कहते हैं कि इस प्रकार शब्द के नित्यत्व की सिद्धि करना उपलब्धि रहित होने से सम्बन्ध रहित है। यह अनुपलब्धि स्वयं अनुपलंभ स्वभाव वाली है। तथा वह अनुपलब्धि उस स्वभाव के द्वारा सदा उपलब्धि का विषय है। जिस प्रकार उपलब्धि ज्ञान का विषय है, उसी प्रकार अनुपलब्धि भी ज्ञान का विषय है। अन्यथा (यदि अनुपलब्धि ज्ञान का विषय नहीं है तो) मुझे घट की उपलब्धि है, पट की उपलब्धि नहीं है। अर्थात् वहाँ पर घट है - पट नहीं है। इस प्रकार का ज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है? जिससे “इस प्रकार आवरण आदिकों की अनुपलब्धि के अनुपलंभ से आवरण आदिकों का अभाव सिद्ध नहीं हो पाता है। और आवरण की असिद्धि होने पर आवरण के अभाव के विपरीत आवरण आदि के सद्भाव की सिद्धि स्थान (प्रतिष्ठा) को प्राप्त नहीं हो सकती। अर्थात् नित्य शब्द के अभाव में आवरण के सद्भाव की सिद्धि भी नहीं हो सकती। ___जिस कारण से उच्चारण के पूर्व शब्द के आवरण आदिकों को मैं प्रत्यक्ष नहीं कर रहा हूँ, देख नहीं रहा हूँ, तथा उन आवरणादि के अनुपलब्धि का उपलंभ कर रहा हूँ अर्थात् उनकी अनुपलब्धि प्रत्यक्ष दीख रही है - इस प्रकार सभी स्थानों पर सभी बाल गोपाल को आकुलता रहित संवेदन हो रहा है। इसलिए प्रतिवादी के द्वारा आवरणादिकों के अदृष्टि (अदर्शन) होने से शब्द के आवरणों का अभाव सिद्ध नहीं होता है। इस प्रकार का यह उपालंभ प्रमाण ज्ञान से युक्त नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो सभी स्थलों पर उपलंभ और अनुपलंभ की व्यवस्था के अभाव का प्रसंग आता है। इसलिए अनुपलब्धि की भी समय की
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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