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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 296 सति पर एवं ब्रवीति प्रागुत्पत्तेरनुत्पन्ने शब्दविनश्वरत्वस्य कारणं यत्प्रयत्नानंतरीयकत्वं तन्नास्ति ततोयमविनश्वरः, शाश्वतस्य च शब्दस्य न प्रयत्नानंतर जन्मेति सेयमनुत्पत्त्या प्रत्यवस्था दूषणाभासो न्यायातिलंघनात् उत्पन्नस्यैव हि शब्दधर्मिणः प्रयत्नानंतरीयकत्वमुत्पत्तिधर्मकत्वं वा भवति, नानुत्पन्नस्य प्रागुत्पत्तेः शब्दस्य चासत्त्वे किमाश्रयोयमुपालंभः। न ह्ययमनुत्पन्नोऽसन्नेव शब्द इति वा प्रयत्नानंतरीयक इति वा अनित्य इति वा व्यपदेष्टुं शक्यः। शब्दे तु सिद्धमेव प्रयत्नानंतरीयकत्वं कारणं नश्वरत्वे साध्ये। ततः कथमस्य प्रतिषेधः। किं वायं हेतुआपको न पुन: कारको, ज्ञापके च कारकवत्प्रत्यवस्थानमसंबद्धमेव / ज्ञापकस्यापि किंचित्कुर्वतः कारकत्वमेवेति चेत् न, क्रियाहेतोरेव कारकत्वोपपत्तेरन्यथानुपपत्तिरिति हेतोआपकत्वात्। कारकता हि वस्तूत्पादयति ज्ञापकस्तूत्पन्नं वस्तु ज्ञापयतीत्यस्ति विशेषः। कारक विशेषे वा ज्ञापके कारकसामान्यवत्प्रत्यवस्थानमयुक्तं / किं च-प्रागुत्पत्तेरप्रयत्नानंतरीयको अनुत्पत्तिधर्मको वा शब्द इति ब्रुवाण: प्रतिवादी इस प्रकार कहता है कि उत्पत्ति के पूर्व शब्द के अनुत्पन्न होने पर विनश्वरत्व का कारण प्रयत्नान्तर . से उत्पन्न होना नहीं है, इसलिए शब्द अविनश्वर है। शाश्वत शब्द का कारणान्तरों से (प्रयत्नान्तरों से) उत्पाद नहीं होता है, इस प्रकार अनुत्पत्ति के द्वारा दूषण देना अनुत्पत्ति प्रतिषेध है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना न्यायमार्ग का उल्लंघन करने वाला होने से दूषणाभास है। क्योंकि उत्पन्न हुए शब्दरूप धर्मी के प्रयत्नान्तरीयकत्व अथवा उत्पत्ति धर्मकत्व धर्म संभव होता है। अर्थात् धर्मी के रहने पर ही धर्म की मीमांसा होती है। जब उत्पत्ति के पूर्व शब्द विद्यमान ही नहीं है तो अविद्यमान शब्द में प्रतिवादी के द्वारा उपालंभ (उलाहना) किसका आश्रय लेकर दिया जा सकता है? यह शब्द अनुत्पन्न (किसी के द्वारा उत्पन्न नहीं हुआ) है। अत: असत् (अविद्यमान) है। प्रयत्नान्तरीयक है जो प्रयत्नों से उत्पन्न होता है वह अनित्य है। इस प्रकार कथन करना भी योग्य नहीं है। क्योंकि शब्द के उत्पन्न होने में और नश्वरत्व साध्य में ज्ञापक हेतु प्रयत्नान्तरीयकत्व (तालु आदि का प्रयत्न) सिद्ध ही है। अर्थात् शब्द पुरुष के तालु आदि की चेष्टा से उत्पन्न होता है, यह अबाधित सिद्ध है। अतः शब्द का निषेध कैसे किया जा सकता है? अथवा शब्द की उत्पत्ति में प्रयत्नान्तरीयकत्व हेतु ज्ञापक है, कारक हेतु नहीं है। इसलिए ज्ञापक हेतु में कारक हेतु के समान कारक साधनों में होने वाले दूषण को उठाना सुसंगत नहीं है। अर्थात् उत्पत्ति के पूर्व जब शब्द ही नहीं है तो उन शब्दों में प्रयत्नजन्य भाव कैसे हो सकते हैं? “साध्य को सिद्ध करना, हेतु का ज्ञान करना, अनुमान ज्ञान को उत्पन्न करना आदि कुछ-न-कुछ करने वाला होने से ज्ञापक हेतु के भी कारकत्व सिद्ध है" ऐसा नहीं कहना चाहिए। क्योंकि क्रियाओं के संपादक हेतु को ही कारकत्व सिद्ध है (कारकत्व की उत्पत्ति है)। अन्यथा अनुपपत्ति होने से (साध्य के अभाव में हेतु के सद्भाव की असिद्धि होने से) हेतु का ज्ञापकपना व्यवस्थित है। क्योंकि, कारकता (कारक हेतु) पूर्व में अविद्यमान वस्तु को उत्पन्न कराता है और ज्ञापक हेतु कारणों से उत्पन्न वस्तु का ज्ञान कराता है। यह दोनों में विशेषता है अर्थात् एक वस्तु का उत्पादक है और दूसरा वस्तु का ज्ञापक निर्णय कराने वाला, वा ज्ञान कराने वाला है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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