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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 269 कर्तव्यौ प्रतिवादिनां न छन्दत इति न्यायः। यदात्र गौणमानं वक्ताभिप्रैति प्रधानभूतं तु तं परिकल्प्य पर: प्रतिषेधति तदा तेन स्वमनीषा प्रतिषिद्धा स्यान्न परस्याभिप्राय इति न तस्यायमुपालंभ: स्यात् / तदनुपालंभाच्चासौ पराजीयते तदुपालंभापरिज्ञानादिति नैयायिका मन्यते॥ तदेतस्मिन् प्रयुक्ते स्यान्निग्रहो यदि कस्यचित् / तदा यौगो निगृह्येत प्रतिषेधात् प्रमादिकम् // 307 // मुख्यरूपतया शून्यवादिनं प्रति सर्वथा। तेन संव्यवहारेण प्रमादेरुपवर्णनात् // 308 // सर्वथा शून्यतावादे प्रमाणादेविरुध्यते / ततो नायं सतां युक्त इत्यशून्यत्वसाधनात् // 309 // योगेन निग्रहः प्राप्य: स्वोपचारच्छलेपि चेत्। सिद्धः स्वपक्षसिद्ध्यैव परस्यायमसंशयम्॥३१०॥ चाहिए-यही न्याय मार्ग है। इस प्रकरण में जिस समय वक्ता शब्द के केवल गौण अर्थ को अभीष्ट कर रहा है, उस समय शब्द के प्रधानभूत अर्थ की परिकल्पना कर यदि दूसरा प्रतिवादी प्रतिषेध करता है, तो समझिए कि उस प्रतिवादी ने अपनी विचारशालिनी बुद्धि का ही प्रतिषेध किया है। इतने से दूसरे वादी के अभिप्राय का प्रतिषेध नहीं हो सकता। अतः प्रतिवादी का वादी के प्रति उपलंभ नहीं है प्रत्युत प्रतिवादी के प्रति ही उपालंभ है। तथा वादी के प्रति उपालंभ होना नहीं बनने से वह प्रतिवादी पराजित हो जाता है, क्योंकि प्रतिवादी को वादी के प्रति उपालम्भ देने का परिज्ञान नहीं है-ऐसा नैयायिक मानते हैं। . इस प्रकार प्रयुक्त किये जाने पर (गौण अर्थ के अभिप्रेत होने पर मुख्य अर्थ के निषेधमात्र से ही) यदि किसी एक प्रतिवादी का निग्रह होना मान लिया जायेगा, तब तो नैयायिक भी शून्यवादी के प्रति मुख्यरूप से प्रमाण, प्रमेय आदि का सर्वथा प्रतिषेध हो जाने से निग्रह को प्राप्त हो जाएगा। क्योंकि लौकिक समीचीन व्यवहार के द्वारा प्रमाण, प्रमिति आदि पदार्थों को उस शून्यवादी ने स्वीकार किया है। अर्थात्संवृति (उपचार) से प्रमाण आदिक तत्त्वों को मानने वाले शून्यवादी का प्रतिषेध नैयायिक मुख्य प्रमाण आदि को मनवाने के लिए करते हैं। क्योंकि प्रमाण हेतु आदि को वस्तुभूत माने बिना साधन या दूषण देना नहीं बन सकता है॥३०७-३०८॥ वाद करने में प्रमाण, प्रमाता, द्रव्य, गुण आदि का सभी प्रकारों से शून्यपना विरुद्ध पड़ता है अर्थात्-जो उपचार और मुख्य सभी प्रकारों से प्रमाण, हेतु, वाचकपद, श्रावणप्रत्यक्ष आदि को नहीं मानता है, वह वादी शास्त्रार्थ कैसे कर सकता है? अतः सिद्ध है कि शून्यवादी उपचार से प्रमाण आदि को स्वीकार करता है, तो फिर नैयायिकों को प्रमाण आदि का प्रतिषेध उसके प्रति मुख्यरूप से नहीं करना चाहिए। किन्तु नैयायिक उक्त प्रकार दूषण दे रहे हैं। अत: अशून्यपने की सिद्धि हो जाने से यह नैयायिकों के ऊपर छल उठाना सज्जनों को समुचित नहीं है, नैयायिक स्व के द्वारा उपचार छल प्रवृत्त हो जाने पर भी शून्यवादी द्वारा निग्रह को प्राप्त कर दिये जायेंगे (नैयायिकों के द्वारा निग्रह को प्राप्त हो जायेंगे)। इस प्रकार कहने पर तो हमारा वही पूर्व का सिद्धान्त प्रसिद्ध हो गया कि अपने पक्ष की सिद्धि कर देने से ही दूसरे प्रतिवादी की पराजय होती है। यह सिद्धान्त संशय रहित होकर सिद्ध हो जाता है, तभी तो शून्यवादी का पक्ष पुष्ट हो चुकने पर उस नैयायिक का निग्रह किया जाता है।३०९-३१०॥ * यहाँ तक आचार्य देव ने नैयायिकों के छल प्रकरण की परीक्षा कर दी है।
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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