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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 265 तथा प्रकृतमपीति न विशेषः कश्चिदस्ति / सोयं ब्राह्मणे धर्मिणि विद्याचरणसंपद्विषये प्रशंसनं ब्राह्मणत्वेन हेतुना साध्यते, यथा शालिविषयक्षेत्रे प्रशंसा क्षेत्रत्वेन साक्षान्न पुनर्विद्याचरणसंपत्सत्ता साध्यते येनातिप्रसज्यत इति स्वयमनैकांतिकत्वं हेतोः परिहरन्नपि तन्नानुमन्यत इति कथं न्यायवित्? तथोपचारछलमनूद्य विचारयन्नाह- . धर्माध्यारोपनिर्देशे सत्यर्थप्रतिषेधनम्। उपचारछलं मंचाः क्रोशंतीत्यादिगोचरम् // 302 // मंचा: क्रोशंति गायंतीत्यादिशब्दप्रयोजनम्। आरोप्य स्थानिनां धर्मं स्थानेषु क्रियते जनैः॥३०३॥ गौणंशब्दार्थमाश्रित्य सामान्यादिषु सत्त्ववत्। तत्र मुख्याभिधानार्थप्रतिषेधश्छलं स्थितम्॥३०४॥ ब्राह्मणत्व हेतु भी व्यभिचारी है। साध्य के बिना ही व्रात्य में रह जाता है। इस प्रकार अस्पर्शवत्त्व और ब्राह्मणत्व हेतु के व्यभिचारी में कोई विशेषता नहीं है। नैयायिकों ने प्रथम इस प्रकार कहा था कि ब्राह्मण पक्ष में विद्या, आचरण सम्पत्ति के विषय में ब्राह्मणत्व हेतु करके प्रशंसा करना साधा जा रहा है। जैसे कि शालि चावलों के विषयभूत खेत में क्षेत्रत्व हेतु से साक्षात् प्रशंसा के गीत गाये जाते हैं, किन्तु, फिर सबसे विद्या, आचरण, सम्पत्ति की सत्ता तो नियम से नहीं साधी जाती है जिससे कि संस्कारहीन ब्राह्मण में अतिप्रसंग दोष आ सके। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार हेतु के अनैकान्तिकपन का स्वयं परिहार करता हुआ भी यह प्रसिद्ध नैयायिक उस प्रतिवादी द्वारा उठाये गये अनैकान्तिकपन को स्वीकार नहीं कर छलप्रयोग बता रहा है। ऐसी दशा में वह न्यायशास्त्र का वेत्ता कैसे कहा जा सकता है? उसी प्रकार नैयायिकों द्वारा माने गये तीसरे उपचार छल का अनुवाद कर विचार करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य वार्तिक कहते हैं - ___. “धर्मविकल्पनिर्देशेऽर्थ सद्भावप्रतिषेध उपचारच्छलम्" - यह न्यायदर्शन का सूत्र है। धर्म के विकल्प यानी अध्यारोप का सामान्य रूप से कथन करने पर अर्थ के सद्भाव का प्रतिषेध कर देना उपचार छल है। जैसे कि “मंचाः क्रोशंति" “गंगायां घोषः" इत्यादि को विषय करने वाले वाक्य के उच्चारण करने पर अर्थ का निषेध करने वाला पुरुष छल का प्रयोक्ता है। अर्थात् मंच शब्द का अर्थ मचान या खेतों की रक्षा के लिए चार खम्भों पर बाँध लिया गया मैहरा है। _ मचान पर बैठे हुए मनुष्य चिल्ला रहे हैं, गा रहे हैं। इस अर्थ में मचान चिल्ला रहा है, गा रहा है। इस शब्द का प्रयोग देखा जाता है। यहाँ स्थानों में रहने वाले आधेय स्थानियों के धर्म का आधारभूत स्थानों में आरोप कर मनुष्यों के द्वारा शब्द व्यवहार कर लिया जाता है। शब्द के गौण अर्थ का आश्रय कर मंच में मंचस्थपने का आरोप है। जैसे कि सामान्य विशेष आदि पदार्थों में गौण रूप से सत्ता मान ली जाती है, अन्यथा उन सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थों का सद्भाव ही उठ जाता है- अर्थात् - नैयायिक या वैशेषिकों ने द्रव्य, गुण, कर्म में तो मुख्य रूप से सत्ता जाति को समवेत माना है और सामान्य, विशेष, समवाय पदार्थों में - गौणरूप से सत्ता (अस्तित्व) धर्म को अभीष्ट किया है। उसी प्रकार मंच का मुख्य
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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