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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 264 शालिबीजमनिराकृतं च तत्प्रवृत्तिविषयक्षेत्रं प्रशस्यते। सोयं क्षेत्रार्थवादो नास्मिन् शालयो विधीयंत इति। बीजात्तु शालिनिर्वृत्तिः सती न विवक्षिता। तथा संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति सस्याद्विषयो ब्राह्मणत्वं न संपद्धेतुर्न चात्र तद्धेतुर्विवक्षितस्तद्विषयार्थवादस्त्वयं प्रशंसार्थत्वाद्वाक्यस्य सति ब्राह्मणत्वे संपद्धेतुः समर्थ इति विषयञ्च प्रशंसता वाक्येन यथा हेतुफलान्निवृत्तिर्न प्रत्याख्यायते तदेवं सति वचनविघातोसद्भूतार्थकल्पनया नोपपद्यते इति परस्य पराजयस्तथा वचनादित्येवं न्यायभाष्यकारो ब्रुवन्नायं वेत्ति, तथा छलव्यवहारानुपपत्तेः। हेतुदोषस्यानैकांतिकत्वस्य परेणोद्भावना वा न चानैकांतिकत्वोद्भावनमेव सामान्यछलमिति शक्यं वक्तुं सर्वत्र, तस्य सामान्यछलत्वप्रसंगात्। शब्दो नित्योऽस्पर्शवत्त्वादाकाशवदित्यत्र हि यथा शब्दनित्यत्वे साध्ये अस्पर्शवत्त्वमाकाशे नित्यत्वमेति। सुखादिष्वत्येतीति व्यभिचारित्वादनैकांतिकमुच्यते न पुनः सामान्यछलं, चावल अच्छे होते हैं - यहाँ शालि बीज के जन्म की विवक्षा नहीं की गयी है और उसका निराकरण भी नहीं कर दिया गया, उस शालि के प्रवृत्ति का विषयक्षेत्र प्रशंसित किया जाता है। अत: यहाँ यह क्षेत्र की प्रशंसा को करने वाला वाक्य है। इतने ही से इस खेत में शालि चावलों का विधान नहीं हो जाता है। बीज के कह देने से तो शालियों की निवृत्ति होती है। वह हमको विवक्षित नहीं है। उसी प्रकार प्रकरण में ब्राह्मण की संभावना होने पर विद्या, आचरण, संपत्ति होगी। इस प्रकार से संपत्ति का प्रशंसक ब्राह्मणपना संपत्ति का हेतु नहीं है। केवल उन ब्राह्मणों के विषय में प्रशंसा करने वाले अर्थ का अनुवाद मात्र है। लोक में अनेक वाक्य प्रशंसा के लिए हुआ करते हैं। ब्राह्मण होना, विद्या, आचरण, संपत्ति का समर्थ हेतु संभव है। इस प्रकार विषय की प्रशंसा करने वाले वाक्य के द्वारा जैसे हेतु से साध्य रूप फल की निवृत्ति का निराकरण नहीं किया जाता है और ऐसा होने पर वचन के विघात से असद्भूत अर्थ की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः ऐसी व्यवस्था होने पर प्रतिवादी असद्भूत अर्थ की कल्पना द्वारा वादी के वचन का विघात नहीं कर सकता। तथा असद्भूत अर्थ की कल्पना के अन्यायपूर्ण कथन करने से दूसरे प्रतिवादी की पराजय हो जाती है। अब आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उक्त कथन को करने वाले न्यायभाष्यकार वात्स्यायन ऋषि यह नहीं समझते हैं कि उस प्रकार से छल का व्यवहार नहीं बनता है, जिस प्रकार वादी की वचनभंगी अनेक प्रकार है उसी के समान प्रतिवादी के प्रतिवचनों का प्रकार अनेक संदर्भो को लिये हुए होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि दूसरे प्रतिवादी के द्वारा वादी के अनुमान में हेतु के अनैकांतिक दोष का उत्थापन किया गया है। हेतु के व्यभिचारीपन दोष का उठाना ही सामान्य छल है-यह तो नहीं कह सकते। क्योंकि ऐसे तो सभी व्यभिचार स्थलों पर उस व्यभिचार दोष के उठाने को सामान्य छलपने का प्रसंग आयेगा। शब्द (पक्ष) नित्य है (साध्य), स्पर्शरहितपना होने से (हेतु) आकाश के समान (अन्वय दृष्टान्त)। इस प्रकार इस अनुमान में जैसे-शब्द का नित्यपन साधने में कहा गया अस्पर्शवत्त्व हेतु कहीं आकाशरूप सपक्ष में नित्यपन को अन्वित कर रहा है, किन्तु कहीं सुख, रूप आदि विपक्षों में नित्यत्व का उल्लंघन करा रहा है। इस कारण व्यभिचारी हो जाने से अस्पर्शत्व हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास कहा जाता है। किन्तु फिर यह प्रतिवादी का हेत्वाभास उठाना सामान्य छल नहीं कहा जा सकता। उसी प्रकार प्रकरणप्राप्त
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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