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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 262 तत्सामान्यछलं प्राहुः सामान्यविनिबंधनं / विद्याचरणसंपत्तिर्ब्राह्मणे संभवेदिति // 293 // केनाप्युक्ते यथैवं सा व्रात्येपि ब्राह्मणे न किम्। ब्राह्मणत्वस्य सद्भावाद्भवेदित्यपि भाषणम् // 294 // तदेतन्न छलं युक्तं सपक्षेतरदर्शनात् / तल्लिंगस्यान्यथा तस्य व्यभिचारोखिलोस्तु तत् // 295 // क्वचिदेति तथात्येति विद्याचरणसंपदं। ब्राह्मणत्वमिति ख्यातमिति सामान्यमत्र चेत्॥२९६॥ तथैवास्पर्शवत्त्वादि शब्दे नित्यत्वसाधने। किं न स्यादिति सामान्यं सर्वथाप्यविशेषतः॥२९७॥ तन्नभस्येति नित्यत्वमत्येति च सुखादिवत् / तेनानैकांतिकं युक्तं सपक्षेतरवृत्तितः // 298 / / विद्याचरणसंपत्तिर्विषयस्य प्रशंसनं / ब्राह्मणस्य यथा शालिगोचरक्षेत्रवर्णनम् // 299 // यस्येष्टं प्रकृते वाक्ये तस्य ब्राह्मणधर्मिणि / प्रशस्तत्वे स्वयं साध्ये ब्राह्मणत्वेन हेतुना // 300 // की पराजय करा दी जाती है। इस प्रकार नैयायिक अपने छल प्रतिपादक सूत्र का भाष्य करते हुए कथन कर रहे हैं। अब जैनाचार्य कहते हैं कि उनके ग्रन्थ में प्रसिद्ध यह नैयायिकों का छल भी युक्त नहीं है। क्योंकि उस हेतु का सपक्ष और विपक्ष में दर्शन हो जाने से प्रतिवादी द्वारा व्यभिचार दोष दिखलाया गया है। अन्यथा विपक्ष में हेतु के दिखलाने को यदि छलप्रयोग बताया जायेगा तब तो सम्पूर्ण व्यभिचार दोष उस छल स्वरूप हो जाएँगे॥२९२-२९५॥ यदि नैयायिक यों कहे कि यहाँ सूत्र में अति सामान्य का अर्थ इस प्रकार है। जो ब्राह्मणत्व किन्हीं विद्वानों में तो विद्या, आचरण, संपत्ति को प्राप्त करा देता है और किसी ब्राह्मण के बालक में वह ब्राह्मणपना उस विद्या चारित्र सम्पत्ति का अतिक्रमण करा देता है। अत: इस प्रकरण में सामान्यरूप से ब्राह्मण में विद्या, आचरण सम्पत्तिरूप अर्थ की सम्भावना सामान्य रूप से कही गयी है, तब तो उसी प्रकार “शब्दो नित्यः अस्पर्शवत्त्वात् / शब्द: अनित्यः प्रमेयत्वात्" इत्यादिक अनुमान में छल क्यों नहीं होगा? शब्द में नित्यपन को साधने के निमित्त दिये गये स्पर्शरहितपन गुणपन आदि हेतुओं का प्रयोग भी अति सामान्य क्यों नहीं होंगे? इन दोनों में सभी प्रकारों से कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् छल या व्यभिचार दोष की अपेक्षा ब्राह्मणत्व और अस्पर्शवत्त्व दोनों समान हैं। अर्थात्-ब्राह्मणत्व हेतु के समान अस्पर्शवत्त्व में भी अतिसामान्य घटित हो जाता है। वह अस्पर्शवत्त्व भी कहीं आकाश में नित्यपन को प्राप्त करा देता है। तथा कहीं सुख, बुद्धि, रूप आदिक गुण और चलना, धूमना आदि क्रियाओं में नित्यपन का अतिक्रमण कर देता है। अतः सपक्ष और विपक्ष में वृत्ति हो जाने से अस्पर्शवत्त्व हेतु को व्यभिचारी मानना युक्त है॥२९६-२९८॥ जैसे कि कलम आदिक शालिधान्यों के प्रवृत्ति विषय खेत की प्रशंसा का वर्णन करना है कि इस. खेत में धान्य अच्छा होना चाहिए। इसी प्रकार ब्राह्मण में विद्या, आचरण, संपत्ति रूप विषय की वादी द्वारा प्रशंसा की गयी है। इस प्रकार नैयायिकों के अभीष्ट करने पर आचार्य कहते हैं कि नैयायिक को प्रकरण प्राप्त वाक्य में यह इष्ट है कि ब्राह्मणपन हेतु द्वारा प्रशस्तपना साध्य करने पर वादी द्वारा स्वयं अनुमान कहा गया माना है। उसके यहाँ हेतु का अनैकान्तिक दोष उठाने योग्य है। यह किसी के द्वारा नहीं सहा जाएगा। जैसे कि
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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