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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 261 तदेकतरार्थसमर्थनेन वा हेतुसिद्धिमुपदर्शयति नवस्तावदेकः कंबलोस्य प्रतीतो भवताऽन्येस्याष्टौ कंबला गृहे तिष्ठंतीत्युभयथा नवकंबलत्वस्य सिद्धेः नासिद्धतोद्भावनीया। नवकंबलयोगित्वस्य वा हेतुत्वेनोपादानात्सिद्ध एव हेतुरिति स्वपक्षसिद्धौ सत्यामेव वादिनो जयः परस्य च पराजयो नान्यथा। तदेवं वाक्छलमपास्य सामान्यछलमनूध निरस्यति यत्र संभवतोर्थस्याति न सामान्यस्य योगतः / असद्भूतपदार्थस्य कल्पना क्रियते बलात् // 292 // में से किसी एक अर्थ का समर्थन करके अपने नव कंबलत्व (नव: कम्बलो यस्य) हेतु की सिद्धि को दिखलाता है। हे प्रतिवादिन्! नवीन एक कंबल तो आपने पास में देखकर निर्णीत ही कर लिया है कि अन्य आठ कम्बल इसके घर में रखे हैं। अत: नवीन और नौ संख्या इन दोनों अर्थों के प्रकार से मेरा नवकंबलत्व हेतु सिद्ध हो जाता है। अत: तुमको असिद्धपना नहीं उठाना चाहिए। बात यह भी है कि हेतुपन सरलता से सिद्ध हो जाता है। नवकंबल का योगीपन कहने से ओढ़े हुए कंबल में नवीनता अर्थ को पुष्टि मिल जाती है। “युज् समाधौ" या युजिर् योगे, किसी भी धातु से योगी शब्द को बनाने पर नूतन कंबल का संयोगीपना हेत्वर्थ हो जाता है जो कि पक्ष में प्रत्यक्ष प्रमाण से दिखता है। योगी शब्द लगा देने से नव का अर्थ नौ संख्या नहीं हो सकता है। अन्त में तत्त्व यही निकलता है कि अपने पक्ष की सिद्धि हो जाने पर ही वादी की जय और दूसरे प्रतिवादी की पराजय होती है। अन्य प्रकारों से जय-पराजय की व्यवस्था नहीं होती है। - इस प्रकार वाक्छल का निराकरण कर अब श्री विद्यानन्द आचार्य दूसरे सामान्य छल का अनुवाद कर खण्डन करते हैं - जहाँ यथायोग्य सम्भव अर्थ का अतिक्रान्त करके सामान्य के योग से अर्थविकल्प उपपत्ति की सामर्थ्य से जो अविद्यमान पदार्थ की कल्पना की जाती है, नैयायिक उसको सामान्य छल कहते हैं। अर्थात् - जो विवक्षित अर्थ को बहुत स्थानों में प्राप्त कर लेता है और कहीं-कहीं उस अर्थ का अतिक्रमण कर जाता है, वह अतिसामान्य है। यह दूसरा सामान्य छल तो सामान्य रूप से प्रयुक्त किये गये अर्थ के विगम को कारण मानकर प्रवृत्ति करता है। जैसे किसी ने जिज्ञासापूर्वक आश्चर्यसहित इस प्रकार कहा कि वह ब्राह्मण है। अत: उसे विद्यासम्पत्ति और आचरण सम्पत्ति से युक्त अवश्य होना चाहिए। अर्थात्-जो ब्राह्मण (ब्रह्म वेत्तीति ब्राह्मणः) है, वह विद्वान् और आचरणवान् होना चाहिए। इस प्रकार किसी के भी द्वारा कहने पर कोई छल को हृदय में धारता हुआ कहता है कि इस प्रकार वह विद्या, आचरण सम्पत्ति तो ब्राह्मण कहे जाने वाले संस्कारहीन व्रात्य में भी क्यों नहीं हो जाएगी? क्योंकि ब्राह्मण माता-पिताओं का तीन चार वर्ष का लड़का भी ब्राह्मण है। उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ नहीं है। वह ब्राह्मण का लड़का व्रात्य है, किन्तु उसे कोई व्याकरण, साहित्य, सिद्धान्त आदि विषयों का ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार उस लड़के में अभक्ष्यत्याग, ब्रह्मचर्य, संत्संग, इन्द्रियविजय, अहिंसाभाव, सत्यवाद, विनयसंपत्ति, संसार भीरुता, वैराग्य परिणाम आदि व्रतस्वरूप आचरण भी नहीं पाये जाते हैं। इस प्रकार, अर्थविकल्प की उपपत्ति से असद्भूत अर्थ की कल्पना कर दूषण उठाने वाला प्रतिवादी कपटी है। अतः ऐसी दशा में वक्ता वादी की जय और प्रतिवादी
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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