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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 259 परवाक्योपालंभत्वेन कल्प्यते तत्त्वपरीक्षायां सतां छलेन प्रत्यवस्थानायोगात् / तदिदं छलवचनं परस्य पराजय एवेति मन्यमानं न्यायभाष्यकारं प्रत्याह एतेनापि निगृह्येत जिगीषुर्यदि धीधनैः / पत्रवाक्यमनेकार्थं व्याचक्षाणो निगृह्यताम् // 287 // तत्र स्वयमभिप्रेतमर्थं स्थापयितुं नयैः। योऽसामोपरैः शक्तैः स्वाभिप्रेतार्थसाधने॥२८८॥ योर्थसंभावयन्नर्थः प्रमाणैरुपपद्यते। वाक्ये स एव युक्तोस्तु नापरोतिप्रसंगतः // 289 / / यत्र पक्षे विवादेन प्रवृत्तिर्वादिनोरभूत् / तत्सिद्ध्यैवास्य धिक्कारोन्यस्य पत्रे स्थितेन चेत् // 290 // क्वैवं पराजयः सिद्ध्येच्छलमात्रेण ते मते। संधाहान्यादिदोषैश्च दात्राऽऽदात्रोः स पत्रकम् // 291 // सामान्य अन्वित है। इस प्रकार नव का जो अर्थ यहाँ पक्ष में सम्भव है कि इसका दुशाला नवीन है, उस विशेष अर्थ में यह नव शब्द उपनय है और जो अर्थ यहाँ सम्भव नहीं है कि इसके पास संख्या में नौ कम्बल विद्यमान हैं; इस प्रकार उस अर्थ में यह नव शब्द नहीं रहता है, क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष अनुमान आदि से विरोध आता है। अत: यह अर्थ की कल्पना करके दूसरों के वाक्यों के ऊपर उलाहना देना, उस छलवादी ने कल्पित किया है। वह सम्भव नहीं है और वह इष्टसिद्धि कराने में समर्थ भी नहीं है। क्योंकि तत्त्वों की परीक्षा करने में सज्जन पुरुषों के द्वारा छल, कपट, करके परपक्ष निषेध करना समुचित नहीं है। इसलिए यह छलपूर्वक कथनं करना दूसरे प्रतिवादी की पराजय ही है। इस प्रकार मानने वाले के प्रति आचार्य समाधान वचन कहते हैं - .. यदि जीतने की इच्छा रखने वाला विद्वान् केवल अनेक अर्थों का प्रतिपादन करने से ही बुद्धिरूप धन को धारने वालों के द्वारा निग्रहस्थान को प्राप्त हो जायेगा, तब तो अनेक अर्थ वाले पत्रवाक्य का व्याख्यान करने वाला प्रकाण्ड विद्वान् भी निग्रह को प्राप्त हो जायेगा किन्तु इस प्रकार कभी होता नहीं है। अत्यन्त गूढ़ अर्थवाले कठिन-कठिन वाक्यों को लिखकर जहाँ पत्रों द्वारा लिखित शास्त्रार्थ होता है, वहाँ भी उद्भट विद्वान् के ऊपर छल दोष उठाया जा सकता है क्योंकि पत्र में अनेक अर्थ वाले गूढ़ पदों का विन्यास है। किन्तु ऐसा कभी होता नहीं, वहाँ स्वयं अभीष्ट अर्थ को हेतु स्वरूप नयों के द्वारा स्थापन करने के लिए जो वादी सामर्थ्य युक्त नहीं है, वह अपने अभिप्रेत अर्थ को साधने में समर्थ दूसरे विद्वानों के द्वारा पराजित कर दिया जाता है। अर्थ की सम्भावना से जो अर्थ प्रमाणों द्वारा सिद्ध हो जाता है, वही अर्थ वाक्य में लगाना युक्त होता है। दूसरा असंभवित अर्थ कल्पित कर नहीं लगाना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने पर दोष आता है अर्थात् गौ शब्द का प्राय: व्यवहार होता है। क्योंकि उसके वाणी, दिशा, पृथिवी आदि अनेक अर्थ माने गये हैं। अतः संभवित अर्थ ही पकड़ना चाहिए / जैसे नव शब्द के नौ और नया ये दोनों अर्थ संभव हैं। वहाँ प्रतिवादी का छल बताना न्यायमार्ग नहीं है।।२८७-२८९ // नैयायिक कहते हैं कि वादी और प्रतिवादी की पत्र में स्थित विवाद द्वारा जिस पक्ष में प्रवृत्ति हुई है, उस पक्ष की सिद्धि कर देने से ही इसकी जय और दूसरे की पराजय संभव है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मानने पर तुम्हारे मत में केवल छल से ही प्रतिवादी की पराजय कहाँ कैसे सिद्ध हो सकती है? तथा प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर आदि दोषों के द्वारा भी पराजय कहाँ हुई? जब
SR No.004287
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages358
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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